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- मोक्ष मार्ग में बीस कदम, [कुमुदों (चन्द्र से विकसित होने वाले कमलों)का समूह शोभाहीन हो गया है और अम्भोजोंका (सूर्यकिरणों से विकसित होनेवाले कमलों का) समूह खिल रहा है-सुशोभित हो रहा हैं। उल्लू की प्रसन्नता नष्ट हो रही है (क्योंकि उसे रातको ही दिखाई देता है) और चक्रवाक प्रसन्न हैसूर्यका उदय हो रहा है और चाँद अस्ताचल को जा रहा है। दुर्भाग्यशालियोंकी बहुत विचित्र स्थिति हो जाती है!]
इस श्लोक में प्रातःकालका वर्णन करने के बहाने यह प्रकट कर दिया गया था कि आप सौभाग्यशाली हैं और हम दुर्भाग्यशाली। आप आराम से भोजन करते हैं और हम भूखें है। इस प्रकार राजा के साथ अपनी विषमता का विवरण था। यह आश्चर्यकी बात भी थी और खेद की भी! आश्चर्य और खेद-दोनों अर्थ रखने वाले अव्यय “ही''का अन्तिम पंक्तिमें जो अछूता अनोखा प्रयोग किया गया था, उससे भी महाराज भोज बहुत प्रसन्न हुए। उन्हों ने तत्काल एक लाख स्वर्णमुद्राएँ लक्ष्मीदेवी को पुरस्कार स्वरूप दे दी और कहा कि कल मैं स्वयं महाकविके दर्शन करने आऊँगा।
लक्ष्मीदेवी मुद्राओंका थैला किसी राजमहल के भृत्यसे उठवाकर चली आ रही थी और मार्ग में आनेवाले याचकों को दोनों हाथों से स्वर्णमुद्राएँ दान भी करती जा रही थी।
परिणाम यह निकला कि जब वह बगीचे में पहुँची, तब देखने पर पता चला कि थैले में एक भी मुद्रा नहीं बची है। __कविने पूछा :- “क्या राजा भोजको मेरा काव्य पसन्द नहीं आया ?"
लक्ष्मी :- "आपका काव्य भला कौन पसन्द नहीं करेगा? राजा भोज उसे पढ़ कर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कल स्वयं आपके दर्शनार्थं यहाँ आनेका वचन भी दिया है।"
कवि :- “जब वे इतने प्रसन्न हुए, तब कोई पुरस्कार क्यों नहीं दिया? हमने तो उनके विषय में सुना था :
प्रत्यक्षरं लक्षमदत्त भोजः॥ (यदि राजा भोज को कोई श्लोक पसंद आ जाय तो वे उसके प्रत्येक अक्षर पर एक लाख स्वर्णमुद्राएँ दे देते हैं; किन्तु तुम्हें तो कुछ भी नहीं दिया!" ।
पत्नी :- "दिया कैसे नहीं ? उन्होंने तो एक लाख स्वर्णमुद्राएँ इस थैलेमें भरकर दी थी; परन्तु मार्ग में आपका नाम ले-लेकर अनेक याचक मिलते रहे और मैं उन्हें मुद्राएँ देती रही; इसलिए घर आते-आते एक भी नहीं बच पाई!''
माघ :- "शाबाश! तुम मेरे लायक ही पत्नी हो। पत्नी सह धर्मिणी होती है। पति के धर्म में सहयोगिनी होती है। दान मेरा धर्म है। उस धर्म के पालन में सहयोग देकर तुमने एक सहधर्मिणी का ही कर्त्तव्य निभाया है।"
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