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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ईर्ष्या हि विवेकपरिपन्थिनी ।। ( ईर्ष्या विवेक की दुश्मन है ।) और अविवेक संकटों का कारण है : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • ईर्ष्या. • अविवेकः परमापदां पदम् ॥ (विवेक न रहने पर बड़ी-बड़ी आफतें आ खड़ी होती हैं ।) अतः अविवेक से बचने के लिए ईर्ष्या से बचे रहना पड़ेगा। प्रभु महावीर ने कहा था : सव्वत्थ विणीय मच्छरे । - सूत्रकृतांगसूत्र (सब जगह ईर्ष्याभाव से दूर रहो ।) ईर्ष्या से ठीक उल्टी प्रमोदभावना है। दूसरों को सुखी देखकर जलना यदि ईर्ष्या है तो दूसरों को सुखी देखकर प्रसन्न होना प्रमोद है। कहा है : सुरम्यान् कुसुमान् दृष्ट्वा यथा सर्वः प्रसीदति । प्रसन्नानपरान् दृष्ट्वा तथा त्वं सुखमाप्नुयाः ।। - रश्मिमाला ८ /७ [ सुन्दर फूलों को देखकर जिस प्रकार सब लोग प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार दूसरे लोगों को प्रसन्न देखकर तू भी सुख का अनुभव कर ।] यदि दूसरों की प्रसन्नता से हम प्रसन्न रहें और हमारी प्रसन्नता से दूसरे प्रसन्न रहें तो किसीको स्वर्ग पाने की इच्छा ही न रहे। यह दुनिया ही स्वर्ग बन जाय । दुनिया को स्वर्ग बनाने के लिए सब जगह सुख का अनुभव करने के लिए प्रमोद भावना को अधिक से अधिक परिणाम में अपनाने की जरूरत है। वह दिन धन्य होगा, जब प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय में प्रमोद - भावना लहराती दिखाई देगी। सत्त्वेषु मैत्री गुणषु प्रमोदः ।। [प्राणियों से मित्रता और गुणियों को देखकर प्रमोद भावना मनमें उत्पन्न होनी चाहिये । ] स्पर्द्धालु में महत्त्वाकांक्षा होती है। वह अपने से अधिक ग्णी, समृद्ध या कलाकार को देखकर स्वयं भी उससे अधिक गुणी अधिक समृद्ध और अधिक उच्च कला बनने की चेष्टा करता है। इससे विपरीत ईर्ष्यालु उससे जलता है और अपनी जलन मिटने के लिए उसकी टाँग खींचकर उसे भी नीचे गिराने की कोशिश करता है। For Private And Personal Use Only ईर्ष्यालु बहुत असहिष्णु होता है। वह अपने से छोटों के बीच ही रह सकता है । वह सदा हीन भावना (इन्फीरियोरिटी काम्प्लेक्स) का शिकार रहता है; क्योंकि वह जिससे ईर्ष्या करता है, उसे अपने से बड़ा मान लेता है। ५९
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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