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•अहिंसा. "अब मैं राजीमती से नहीं, मोक्षलक्ष्मी से ही विवाह करूँगा।"
महापुरुषों की कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं पाया जाता। वे प्रव्रजित होकर तपस्या करने चले गये। कर्मो का क्षय करके उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। इसके बाद चतुर्विघ संघ की स्थापना करके भव्य जीवों को मुक्तिमार्ग बताते रहे। इस प्रकार जैन धर्मकी वर्तमान चौवीसी में बाईसवें तीर्थकर बने।
तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के जीवन की घटना भी अहिंसा से ही सम्बन्धित है। दीक्षित होने से पूर्व वे पार्श्वकुमार कहलाते थे।
अपनी माता वामादेवी के साथ हाथी पर सवार होकर वे बनारस के बाहर पंचाग्नि तप करने वाले एक तापस के निकट जाकर बोलें :- "जहाँ हिंसा है, वहाँ धर्म का नाटक हो सकता हैं, धर्म नहीं । तुम्हारे सामने ही अग्नि में नाग-जल रहा है और तुम इसे धर्म समझते हो?"
फिर चाकरों से लक्कड़ फड़वाकर उसमें से मृतप्राय नाग निकाल बताया। इससे लोग तापस को धिक्कारते हुए अपने घर लौट गये।
एवं खु णाणिणो सारं जं न हिंसइ किं चणं॥ [ज्ञानी के ज्ञान का यही सार है कि वह किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता। इस प्रकार अहिंसक बनकर रहता है।]
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