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दिला दी।
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मान ही हैं ।)
धर्म गाँधी जैसी हस्ती भारत को दी तो उसने धर्म की शक्ति से पूरे देश को स्वतन्त्रता
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• मोक्ष मार्ग में बीस कदम
एक बार उनसे पूछा गया :- "महात्माजी ! आप जैसे दुबले-पतले व्यक्ति में ऐसी शक्ति कहाँ से आ गई कि आप जिधर पाँव रखते हैं, उधर लाखों पाँव चल पड़ते हैं :आपकी बात सुनकर करोड़ों आदमी जेल जाने को तैयार हो जाते हैं :- आप जीधर देखते हैं, करोड़ों आँखे उधर ही देखने लग जाती हैं ?"
वे बोले :- "यह मेरी शक्ति नहीं है, धर्म की शक्ति है। मैंने सत्य और अहिंसा को अपने जीवन में प्रतिष्ठित किया है। सत्य को ही मैं परमेश्वर मानता हूँ ।"
फिर पूछा गया :- Where can I find truth? वह सत्य कहां मिल सकता है ? तो गांधीजी ने उत्तर दिया :- 'No where. One can find truth in one's own heart' कहीं नहीं । व्यक्ति अपने हृदय के भीतर ही सत्य पा सकता है
क्योंकि शान्ति की तरह सत्य भी आत्मा का स्वभाव है। बालक जन्म से ही सच बोलता है। सच बोलने में सोचना नहीं पड़ता । सोचना पड़ता है, झूठ बोलने में। एक झूट को छिपाने के लिए दूसरा और दूसरे को छिपाने के लिए तीसरा झूट बोलना पड़ता हैं। नये-नये बहाने ढूँढने पड़ते है । चिन्ताओं से व्यक्ति घिर जाता है। उसके भीतर की स्वभाविक शान्ति छिन जाती
है।
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मनुष्य सहज ही सत्य बोलता है। सत्य बोलना कभी कसी को सीखना, सीखाना नहीं पड़ता; इसलिए सत्य आत्मा का धर्म है। कर्त्तव्य का पालन करना धर्म है। धर्म की सैकड़ो व्याख्याएँ है; परन्तु संक्षिप्ततम व्याख्या यह है :
मंगलमुक्कम् अहिंसा संजमो तवो ।
देवावि तं नम॑सन्ति जस्स धम्मे सया मणो ।।
(अहिंसा, संयम और तप रूपी धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। जिस का मन सदा धर्म में रहता है, उसे देवता भी नमस्कार किया करते हैं)
अहिंसा आत्मा का स्वभाव है; क्योंकि :
सब्बे जीवावि इच्छन्ति जीविउ न मरिज्जिउम् ।।
(सभी जीव जीना चाहते है, मरना कोई नहीं चाहता )
जैसे हम जीना चाहते हैं, वैसे सभी प्राणी जीना चाहते हैं। जैसे हम चाहते हैं कि कोई हमारी हत्या न करे, वैसे सभी जीव चाहते हैं कि उनकी कोई हत्या न करे। जैसा व्यवहार हम दूसरों से चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार हमें दूसरों के प्रति करना चाहिये; क्योंकि वे भी हम से वैसा ही व्यवहार चाहते हैं।
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