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स्वाद विजेता गुरुदेव
संयम जीवन के प्रथम चार दशक तक तो आचार्य श्री प्रतिदिन 'एकासणे' का तप ही करते थे। बाद में शारीरिक प्रतिकूलताओं के कारण समुदाय के साधुओं के अत्यंत आग्रह वश उन्हें बड़े दुःख के साथ 'एकासणे' का तप छोड़ना पड़ा । आचार्यश्री हमेशा मात्र दो द्रव्यों से ही आहार कर शरीर का निर्वाह करते और चार 'विगई' का नियमित त्याग रखते थे। दीक्षा ग्रहण के थोड़े समय पश्चात् ही आपने मिठाई का भी त्याग कर दिया था। उस दिन से जीवन पर्यत आपने कभी मिठाई नहीं चखी।
एकासणे का तप छोड़ने के बाद भी आप दिन में कई घण्टों तक अभिग्रह पच्चक्खाण द्वारा चारों आहार का त्याग रखते थे। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में चाय का कभी स्वाद नहीं चखा था । हमारे पूछने पर वे कहा करते थे कि-' मुझे यह पता नहीं, कि चाय का स्वाद कैसा होता है।'
शिल्प शास्त्र के प्रकांड विद्वान
शिल्पशास्त्र के प्रकांड ज्ञाता होने के कारण जिनमूर्ति और जिनमंदिर के सम्बंध में मार्गदर्शन के लिए हजारों लोग आचार्यश्री के पास आया करते थे। इतना ही नहीं, कई ख्यातनाम आचार्य भगवन्त भी इस विषय में पूज्यश्री से सलाह लेते थे। जिनशासन के हर छोटे-बड़े कार्य के लिए आचार्यश्री हमेशा तत्पर एवं समर्पित रहते थे ।
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