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सहर्ष अनुमति प्रदान की । अन्ततः सं. १९९४, पोस वृदि १० के परम -पावन दिन अहमदाबाद की पवित्र वसुंधरा पर परम पूज्य आचार्य श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी म. सा. के पास काशीराम ने पुनः दीक्षा ग्रहण की और पूज्य तपस्वी मुनिरत्न श्री जितेन्द्रसागरजी म. सा. के शिष्य बने । पुनः दीक्षा के बाद उनका नाम ' मुनिश्री कैलाससागरजी म. रखा गया । सुशील साधु
यहां से उनकी आत्मविकास और उज्ज्वल जीवन की प्रक्रिया विस्तृत और सुन्दर रूप से आगे बढ़ी | स्वयं की अपूर्व बौद्धिक प्रतिभा के कारण स्वल्प समयावधि में ही पूज्य मुनि श्री कैलाससागरजी म. ने आगमिक - दार्शनिकसाहित्यिक आदि ग्रन्थों का पूरी निष्ठा के साथ गहराई पूर्वक अध्ययन किया । अध्ययन में उनकी अपूर्व लगन और तन्मयता के कारण थोड़े ही वर्षो में मुनिश्री की गणना जैन समाज के विद्वान साधुओं में होने लगी । जिनके पास भी मुनिश्री अध्ययन करते उनके मन और स्नेह को वे तुरन्त ही जीत लेते। कहीं भी कोई नया ज्ञान प्राप्त करने के लिए मीलों तक का विहार करने में भी वे हिचकिचाते नहीं थे । तलस्पर्शी अध्ययन के साथ-साथ मुनिश्री की गुरु सेवा भी अपूर्व थी । ज्ञान का अजीर्ण उनमें कभी देखने को नहीं मिला । गुरुदेव के प्रति अपूर्व समर्पण भाव के कारण गुरुदेव श्री की असीम कृपा हर समय उनके साथ थी। वे जो भी कार्य करते, गुरु आज्ञा को ही उसमें
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