SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री पद्मसागरसूरि ३९ इस अजीब घटना को लेकर नेपाल की राजधानी काठमाण्डु में लोग चकित से रह गये. कई भव्यजनों के हृदय के उद्गार थे-कितने महान हैं ये जैन संत जिनके दर्शन स्वयं महाराज ने किये. इसके बाद तो ऐसा गजब का प्रभाव आम जनता पर भी पड़ा की दर्शनार्थियों का तांता सा रहने लगा. यह तो सिर्फ आचार्यश्री के पद्मांकित चरण-कमलों का ही प्रभाव था. महामहिम के गुणों की सुवास तो पूरे संसार में फैली हुई है. __ लौटते हुए जनकपुरी- नेपाल में मल्लिनाथ एवं नमिनाथजी भगवान के चार-चार कल्याणकों की पवित्र भूमि की स्पर्शना की तथा इस पावन भूमि में मन्दिर न होने के कारण जिनमन्दिर युक्त तीर्थ का रूप देने का विशाल आयोजन करने की प्रेरणा की. नेपाल से वापस आने के बाद अपनी जन्मभूमि अजीमगंज (मूर्शिदाबाद) में चातुर्मास हेतु सुविशाल शिष्य समुदाय के साथ पदार्पण किया. प्रेमचन्द से आचार्य पद्मसागरसूरीश्वरजी बनने तक के ४३ सुदीर्घ वर्षों के बाद आपने अपनी जनमभूमि का स्पर्श किया. एक चातुर्मास आपकी अपनी भूमि में हो यह एक प्रकार से लम्बे समय से वहाँ के श्रीमन्त संघ के प्रत्येक परिवार का ख्वाब था. अंततः यह ख्वाब सन् १९९६ में पूरा हुआ. भागीरथी गंगा के सुरम्य किनारे पर बसा अजीमगंज वैसे भी मनोहारी स्थान तो है ही, साथ ही राष्ट्रसंन्त के पवित्र चरणों से वह पावन भी हो गया. जैसे ही आचार्य प्रवर का आगमन हुआ कि कोलकाता में व्यवसायार्थ रह रहे सैकड़ों परिवारों ने आकर आपके चातुर्मास का सुन्दर लाभ उठाया. पूज्यश्री ने प्रवचनों के माध्यम से उनकी सोयी हुई आत्मा को झकझोर दिया. धर्म-आराधनाओं की बाढ़ सी आ गई हो वैसा माहौल जमा रहा. पूज्य गुरुदेव ने यहाँ पर चार जिनमन्दिरों की पुनः प्रतिष्ठा कराकर संघ की समुन्नति में अपना बहुमूल्य सहयोग दिया. संघ ने भी आपके महान् पदचिह्नों पर चलने हेतु अपनी उत्कृष्ट भक्ति का उदाहरण देते हुए अपने ही गाँव के दो-दो मुमुक्षु बालरत्नों को समर्पित करके चातुर्मास को चिर स्मरणीय बनाया. For Private And Personal Use Only
SR No.008715
Book TitleJina Shashan Ke Samarth Unnayak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2001
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy