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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १६ जिनशासन के समर्थ उन्नायक आचार्यप्रवर की अध्यक्षता में हो रहे महाभिनिष्क्रमण के उस अवसर को देखना, निहारना भी एक लाहा था. जिन्होंने देखा वह मानो उनकी आँखों की सार्थकता थी. शुभ वेला में ग्रहों की उच्च स्थिति आने पर उपयोग से साध्य लग्नमुहूर्त में नाण क्रियाएँ प्रारंभ हुई. त्यागमूर्ति आचार्य प्रवर ने स्वयं मुमुक्षु प्रेमचन्द को देव दुर्लभ रजोहरण अर्पित किया. मनोवाञ्छित की सिद्धि होते ही लब्धिचन्द कुमार रजोहरण (ओघा) हाथ में लिये खूब नाचे. मुण्डन के बाद उज्ज्वल - धवल वस्त्रों में संयम की भव्यता को समेटे मुमुक्षु लब्धिचन्द श्रद्धासम्पन्न हजारों लोगों के दिलो दिमाग पर छा गये. निस्पृह चूड़ामणी दीक्षा प्रदाताश्री ने आपका नामाभिधान मुनिश्री पद्मसागरजी उद्घोषित किया. श्रमण जीवन में आपको अपने विद्वान् शिष्यरत्न शिल्पशास्त्र मर्मज्ञ श्रीमत् कल्याणसागरजी महाराज का पट्टधर शिष्यत्व प्रदान किया. अध्ययन ही एक लगन दीक्षा अंगीकार करने के बाद मुनि श्री पद्मसागरजी श्रमण - जीवन को भीतर व बाहर से संवारने तथा उसे सार्थक बनाने के लिए समग्रता से लग गये. पूज्यश्री के कुशल सान्निध्य में मुनि पद्मसागरजी ने अध्ययन के साथ साथ साधुजीवन की आचार मर्यादाओं को देखा, समझा और भलीभाँति परिपालना के द्वारा चरितार्थ किया. नूतन मुनि पद्मसागरजी का प्रथम चातुर्मास सन् १९५५ में पूज्य दादागुरु की सन्निधि में राजस्थान के सादड़ी नगर में हुआ. यहीं पर आपका अध्ययन प्रारंभ हुआ. मौन रहकर तल्लीनता से पढ़ना आपका स्वभाव है. कुशाग्र-बुद्धि के बलबूते पर आप प्रारंभिक वर्षों में गुरुकृपा से जैनदर्शनादि आधारभूत ग्रन्थों का अवगाहन करते रहे. पूज्य आचार्य श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज हमेशा आपको संयम में जागृत रहने की प्रेरणा देते रहे. प्रथम चातुर्मास में ही आपने प्रथम बार कर्मसूदनी अट्ठाई तपस्या भी की. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आप में अयाचकता का एक अद्भुत गुण बचपन से ही था. कहावत है कि 'मंगनो भलो न बाप से, जो विधि राखे टेक.' अयाचकता की टेक में चातक को सर्वोपरी माना गया है, जो कि प्यास से मर जाता है किन्तु जल तो स्वाति नक्षत्र की वर्षा का ही पीता है, धरती का जल कभी नहीं For Private And Personal Use Only
SR No.008715
Book TitleJina Shashan Ke Samarth Unnayak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2001
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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