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आचार्य श्री पद्मसागरसूरि बालमन आध्यात्मिक जीवनधारा का अनुरागी बन गया. पूर्व भव में अर्जित धर्मबीज तो थे ही, बस! जल के संयोग की प्रतीक्षा थी.
श्री मोतीचन्दजी के साथी यति श्री करमचन्दजी महाराज भी बड़े सौम्य स्वभावी और ज्ञानानन्दी थे. वे रत्नों की परख करने में जौहरी की तरह निपुण थे. जैसे पवन ही पुष्पों की सुगंध को दशों दिशाओं में फैलाता है, उसी तरह सज्जन व्यक्ति ही उत्तम पुरुषों की गुणनिधि की पहचान करा सकते हैं. आपने भी प्रेमचन्द में विशिष्ट लब्धियाँ भाँप ली होगी अतः प्रेमचन्द का प्यारा सा दूसरा नाम लब्धिचन्द रख दिया. यही नाम बाद में सभी शिक्षा संस्थानों में चलता रहा. दोनों यतिवरों का लब्धिचन्द के ऊपर अपार स्नेह था. क्योंकि कुशाग्र, बुद्धिशाली और प्रतिभा सम्पन्न छात्र गुरुओं के स्नेह भाजन होते हैं. इतना ही नहीं यतिवर श्री मोतीचंन्दजी तो यहाँ तक चाहते थे कि यह बालक उन्हें सौप दिया जाय और वे अपने अभिभावकत्व में लब्धिचंद की शिक्षा-दीक्षा परिपूर्ण करायें. किन्तु शैशव की स्वाभाविक चंचलता के होते हुए आपकी महत्वाकांक्षा कुछ और ही थी. मोतीचन्दजी का स्नेहपाश उन्हें बाँध नहीं सका, क्योंकि बाल मानस और बहते पानी को कौन रोक पाया है? फिर भी भीतर में आध्यात्मिक भावनाओं का प्रवाह जारी ही रहा.
अजीमगंज नगर देश के पूर्वी छोर का एक जाना-माना जैनों का केन्द्र था. यहाँ समय-समय पर जैनाचार्यों व मुनिवरों का चातुर्मास एवं विचरण होता था. एक दिन पाठशाला में बीकानेर गद्दी के श्रीपूज्य विजयेन्द्रसूरिजी महाराज आये थे. पीछे की पंक्ति में अध्ययन मग्न छात्र को बुलाते हुए कहा- 'लब्धिचन्द! इधर आओ' लब्धिचन्द विनय सहित नत मस्तक आचार्यश्री के पास पहुँचे, हाथ जोड़कर वंदना की. महाराज साहब ने सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और बोले 'तुम्हें जैन धर्म का एक होनहार प्रवक्ता बनना है'. मानो इस आशिष के रूप में भविष्य कथन ही किया था. महाराजश्री ने लब्धिचन्द को एक धार्मिक पुस्तक भी प्रदान की और अध्ययन के लिए उत्साहित किया. लब्धिचंद संघ के श्री पवनकुमारी जैन ज्ञानमंदिर में भी नियमित रूप से जाकर ज्ञानार्जन करते थे. आखिरकार एक दिन अन्तःकरण की उर्वर भूमि पर शैशव में
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