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सचित्र जैन कथासागर भाग १ कर काँटा निकाला और पीछे देखा तो अपना पीछा करते सेठ, उसके पुत्रों तथा सैनिकों को देखा. सुषमा घबरा गई, अतः चिलाती ने तुरन्त उसे कंधे पर उठाया और तीव्र गति से दौड़ने लगा । खड्डों, ग्रीष्म ऋतु की धूप, प्यास तथा सेठ के भय से सुषमा को उठाये अधिक आगे चलना चिलाती को जब दुष्कर प्रतीत हुआ तब वह घबराया । उसका धैर्य टूट गया। सुषमा को लेकर मैं अब यहाँ से नहीं भाग सकूँगा, यह निश्चय हो गया, परन्तु पूर्व जन्म की स्नेही सुषमा को छोड़ी भी कैसे जाये ? इस प्रश्न ने उसे असमंजस में डाल दिया ।
चिलाती एवं सेठ के मध्य अन्तर कम रह गया था। इस समय उसके पास अधिक सोचने का समय नहीं था । अब चिलाती के पास सुषमा को सौंप कर सेठ के अधीन होना अथवा सुषमा को छोड़ कर भाग जाना, ये दो ही मार्ग थे। इतने कष्टों से उठाई हुई सुपमा को पुनः सौंप कर बन्दी वनूँ और लोग नगर में मेरी ओर अंगुली उठायें, इसकी अपेक्षा तो मृत्यु क्या बुरी है? अपने प्राण बचाने के लिए सुपमा को इस प्रकार फेंक दूँ तो मेरा उस पर शुद्ध प्रेम नहीं था यह भी स्वयं ही क्या प्रमाणित नहीं होता ?
'ओ चिलाती! रुक जा । तूने मेरा अन्न खाया, मेरे घर पना और तू मेरी पुत्री को भगा कर मुझे लोगों में बदनाम मत कर । छोड़ दे सुषमा को।' भय, शोक एवं क्रूरता से सेठ चिल्लाया ।
भय से काँपती सुषमा का निस्तेज चेहरा चिलाती ने देखा और देखते ही उसके मन
सोमपुरा
चिलाती ने तनिक झुककर सुसमा के पैर से कांटा निकाला और दूर देखा तो अपना पीछा करते हुए शेठ, उसके पुत्रों तथा सैनिकों को देखा.