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________________ शुद्ध आहार गवेषणा अर्थात् ढंढण मुनि ८१ की। किसी भाग्यशाली धूल धानिये को कूडा-करकट फेंकते समय स्वर्ण, मोती अथवा रत्न प्राप्त हो जाये उसी प्रकार कृष्ण के पुत्र ढंढण मुनि को लड्डुओं का चूरा मिट्टी में मिलाते समय मिट्टी धोते समय मोक्षरत्न प्राप्त हुआ | देवों ने देव-दुंदुभि बजाते हुए चारों ओर जय जयकार का घोप किया। ढंढण मुनि भगवान के पास आये और वे केवली पर्पदा में बैठे । शुद्ध आहार गवेषणा भी केवलज्ञान का धाम कैसे बन सकता है। उसका जगत् के सामने आदर्श प्रस्तुत करते हुए आज भी उन ऋषि को - ढंढण ऋषि को बंदना मैं वारी लाल उत्कृष्टो अणगार रे मैं वारी लाल कहकर जगत् उनके पावन नाम को सुनकर पावन बनता है। पुफ्फिए फलिए तह पिउ धरंमि तन्हा छूहा समणुबद्धा ढंढेण तहा विसढा, जह सफलया जाया ।।३९ ।। अर्थात् पुष्पित एवं फलित ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न पिता कृष्ण-वासुदेव का घर होते हुए भी ढंढण कुमार ने मुनि जीवन में निरन्तर ऐसी भूख एवं प्यास सहन की कि जो उन्हें केवल-लक्ष्मी प्रदान करा कर सफल हो गई। (उपदेशमाला से)
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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