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कच्चे सूत का बन्धन अर्थात् आर्द्रकुमार का वृत्तान्त के हाथ अथवा पाँव समान नहीं होते, और न उनकी रेखाएँ समान होती है।' पिता की अनुमति से दानशाला का कार्य श्रीमती ने सम्हाला । हजारों याचकों, अभ्यागतों एवं सन्तों को उसने दान दिया। उनके चरणों का अवलोकन किया परन्तु उन मुनि के चरण-कमल नहीं मिले ।
एक दिन तप-कृश आर्द्र मुनि घूमते-घूमते वसन्तपुर के बाहर स्थित उस दानशाला में आये श्रीमती ने नीचे मुँह रख कर मुनि को भिक्षा दी और पाँव पहचानने पर उनके सामने दृष्टि की। दोनों की दृष्टि स्थिर हुई । तप से शुष्क बनी मुनि की आँख स्हेनमयी वनी । शुष्क नसों में चेतना उत्पन्न हुई और अत्यन्त नियन्त्रण रखने पर भी मन नियन्त्रण में नहीं रहा, क्योंकि पूर्व भव का वन्धुमती का प्यार मरते-मरते हृदय में से मिटाया नहीं था। अन्त में वन्धुमती में से श्रीमती बनी श्रेष्ठी-पुत्री के साथ उन्होंने गृहस्थ जीवन प्रारम्भ किया और आकाशवाणी को देव-वाणी मानकर उसे सत्य ठहराया।
श्रीमती के साथ संसार चलाते आर्द्रकुमार के एक पुत्र हुआ । श्रीमती का स्नेह पुत्र की ओर उन्मुख हुआ और आर्द्रकुमार को पुनः संयम का नाद सुनाई दिया। उसने श्रीमती को कहा, 'श्रीमती! मैं अब संयम अङ्गीकार करूँगा।' उसने उन्हें समझाने के अनेक प्रयत्न किये परन्तु वे सब प्रयत्न निष्फल सिद्ध हुए।
श्रीमती को प्रतीत हुआ कि अव आर्द्रकुमार नहीं रुकेगा, अतः उसने चर्खे का आश्रय लिया । उसने नित्य सूत कातना प्रारम्भ किया और अपना जीवन स्वावलम्बी बनाना प्रारम्भ किया।
श्रीमती एवं आर्द्रकुमार दोनों बैठे हुए थे। उस समय उनके पुत्र ने माता को पूछा, 'माता! यह किस लिए कात रही हो?'
'पुत्र, तेरे पिता संयम अङ्गीकार करने वाले हैं, फिर अपने आधार के लिए मुझे कुछ तो श्रम करना पड़ेगा न?'
'पिताजी! क्या आप चले जाने वाले हैं? लो, अव कैसे जाओगे? इस प्रकार आर्द्रकुमार को चर्खे से कते कच्चे सूत का डोरा लपेटते हुए वालक ने कहा।
आर्द्रकुमार ने उसे छाती से लगा लिया और उसने अपने आस-पास लपेटे हुए डोरे (धागे) गिने तो वे पूरे वारह डोरे थे । कच्चे सूत के डोरे भी श्रृंखला बनने पर तोड़ने कठिन थे।
श्रृंखला के वन्धन तोड़ने के लिए वल काम आता है, परन्तु ये प्रेम-तन्तु तो वल को खड़ा होने ही नहीं देते । अतः उसने पुनः वारह वर्ष तक रुकने का निर्णय किया । आर्द्रकुमार और बारह वर्षों तक रुके । तत्पश्चात् उन्होंने श्रीमती, पुत्र एवं सवकी