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सुनन्दा एवं रूपसेन
'ज्ञानी भगवन्त! आप जो कुछ कह रहे हैं वह सब सही है, परन्तु भगवन्! रूपसेन का क्या हुआ?' निःश्वास छोड़ती हुई सुनन्दा ने पूछा। ___ 'सुनन्दा! रूपसेन भी तेरी तरह अस्वस्थता का वहाना बना कर कौमुदी महोत्सव में नहीं गया। प्रथम प्रहर व्यतीत होने पर घर बन्द करके प्रफुल्लित होता हुआ वह तेरे महल में आने के लिए रवाना हुआ, परन्तु कर्म की विचित्र गति के कारण एक निराधार दीवार के गिर जाने से उसके नीचे दब कर वह मर गया और मरणोपरान्त तेरे गर्भ में जीव के रूप में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात वह साँप, कौआ, हंस एवं हिरन वना | जो हिरन का माँस आप आनन्द पूर्वक भक्षण कर रहे हैं, वह रूपसेन के जीव का कलेवर है।'
सुनन्दा ने हाथों से कान बन्द कर दिये और 'अरेरे!' कह कर वह चिल्ला पड़ी और वोली, 'भगवन! मैं घोर पापिणी हूँ | रूपसेन ने तन से पाप नहीं किया फिर भी उसकी ऐसी दुर्दशा हुई, तो मेरा क्या होगा? भगवन्! क्या किसी प्रकार से मेरा उद्धार सम्भव
'त्याग-मार्ग से महा पापी का भी उद्धार होता है । जब तक मनुष्य के हाथ में जीवन की रस्सी है, तब तक तैरने के समस्त मार्ग हैं।'
'भगवन! रूपसेन का जीव हिरन की योनि में से च्यव कर कहाँ उत्पन्न हुआ है? उस विचारे का क्या किसी प्रकार से उद्धार होगा? _ 'भद्रे! विन्ध्याचल के सुग्राम गाँव के सीम में वह हाथी के रूप में उत्पन्न हुआ है। तेरे ही मुँह से वह पूर्व के सात भवों का विवरण सुनेगा, जिससे उसे जाति-स्मरण ज्ञान होगा और उसका मोह नष्ट होगा, वह धर्म प्राप्त करेगा और देवलोक में जायेगा।'
सुनन्दा राजा की ओर उन्मुख हुई और वोली, 'नाथ! आपने मुझ कुलटा का, व्यभिचारिणी का चरित्र सुन लिया । मैं भ्रप्ट चरित्र वाली रूपसेन के अनर्थ की कारण हूँ। आप आज्ञा प्रदान करें तो दीक्षा अङ्गीकार करके मैं अपना और जिसके मैंने सातसात भव नष्ट किये हैं उसका कल्याण करने का प्रयास करूँ ।'
राजा वोला, 'देवी! जीव मात्र कर्माधीन है | तू अकेली क्यों? हम दोनों दीक्षा अङ्गीकार करें और अपना कल्याण करें ।'
मुनिवर ‘मा घडिवन्धं करेह' अर्थात् विलम्ब मत करो' कहकर वे गुरुदेव के समक्ष गये।
तत्पश्चात् राजा ने, रानी ने और अनेक भावुकों ने दीक्षा ग्रहण की । राजा ने उत्कृष्ट चारित्र की आराधना की और उसी भव में मुक्ति प्राप्त की।