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श्री पार्श्वनाथ भगवान का चरित्र
उस समय देवताओने समवसरण की रचना की। पूर्व दिशा की ओर मुहं करके भगवान ने सर्व प्रथम 'नमो तित्थस्स' कहा । महाराजा अश्वसेन एवं वामादेवी नगर-जनों के साथ भगवान की अमृतमय वाणी (देशना) श्रवण करने के लिए आये। भगवान ने देशना देते हुए बताया, 'संसार-सागर में डूबते हुए भव्य प्राणियों की रक्षा धर्म ही करता है। वह धर्म दो प्रकार का है - साधु धर्म और श्रावक धर्म | भगवान ने जव धर्म प्ररूपित किया तव अनेक आत्माओं को धर्म प्राप्त हुआ । उस अवसर पर बीस वर्ष की अवस्था वाले, अत्यन्त रूपवान और पूर्व में गणधर नाम कर्म उपार्जन करने वाले शुभ, दत्त, आर्यघोप, वशिष्ट, बम्भ, सोम, श्रीधर, वारिषेण, भद्रवश, जय एवं विजय ने प्रव्रज्या ग्रहण की। उस समय अनेक अन्य आत्माओं ने दीक्षा अंगीकार की और फिर भगवान ने उन्हें उत्पाद, विगम, ध्रुव रूप त्रिपदी प्रदान की। उस त्रिपदी के द्वारा अपनी विशुद्ध बुद्धि से गणधर नामकर्म के उदय से उसका विस्तार करके उन्होनें द्वादशांगी की रचना की।
उस समय गोधर्मेन्द्र सुगन्धित वासक्षेप से परिपूर्ण रत्नों का थाल लेकर भगवान के पास आया । भगवान ने उन दसों को गणधर पद से विभूषित किया और उन्हें समस्त द्रव्य, गुण पर्याय एवं नय के द्वारा तीर्थ की अनुज्ञा प्रदान की और उनके सिर पर वासक्षेप डाला। महारानी प्रभावती ने भी भगवान से दीक्षा अंगीकार की। दूसरे दिन महाराजा अश्वसेन ने भगवान को दस गणधरों के पूर्व भव पूछे और भगवान ने गणधरों के पूर्व भवों का वर्णन सुनाया। _भगवान ने कुछ समय तक विहार करके भव्य जीवों को उपदेश दिया और निर्वाण का समय सन्निकट जान कर वे समेतशिखर गिरि पर पधारे । वहाँ भगवान एक स्फटिकरत्न की शिला पर चारों प्रकार के आहारों का पच्चक्खाण लेकर पादोपगम के द्वारा कई महिनों तक रहे और सावन शुक्ला अष्टमी के दिन विशाखा नक्षत्र में चन्द्र आने पर, पूर्व में नहीं किये गये शैलेपीकरण का आरम्भ करके एक समय में आयुष्य, नाम, गोत्र, वेदनीय कर्म भोग कर पल भर में समस्त कर्मों का क्षय करके तैंतीस मुनिवरों के साथ श्री पार्श्वनाथ भगवान एक सौ वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके मोक्ष में गये ।