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श्री पार्श्वनाथ भगवान का चरित्र
सातवाँ भव मरुभूति - ग्रैवेयक देवलोक में। कमठ - सातवी नरक में।
आठवाँ भव मरुभूति - कनकबाहू चक्रवर्ती। कमठ - सिंह।
महाविदेह क्षेत्र में सुरपुर नगर में कुशलवाहु नामक राजा था, जिसकी अत्यन्त रूपवती, यौवन-सम्पन्न सुदर्शना रानी की कुक्षि से वज्रनाभ के जीव ने प्रैवेयक देवलोक में से पुत्र के रूप में जन्म लिया । पुत्र के गर्भ में आते ही रानी ने चौदह स्वप्न देखे थे। सुदर्शना की कुक्षि से उत्पन्न उस पुत्र का नाम कनकबाहु रखा गया। राजकुमार वहत्तर कलाओं में प्रवीण हो गया । राजा कुशलबाहु ने विचार किया कि मुझे भी अपने पूर्वजों के मार्ग का अनुसरण करना चाहिये। यह सोच कर पुत्र को राज्य सौंप कर राजा-रानी दोनों ने दीक्षा अंगीकार कर ली। कुछ समय के पश्चात् चक्रवर्ती की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ।
आयुधशाला के रक्षक ने राजा को चक्ररत्न की उत्पत्ति का सुसमाचार देते हुए उन्हें बधाई दी तव राजा ने विधिपूर्वक चक्ररत्न की पूजा की। भगवान की कृपा से पूर्व भव में निर्मल चारित्र का पालन करने के कारण उसे चौदह रत्नों का नव-निधान प्राप्त हुआ। सहस्रा यक्षों के द्वारा रक्षित वह चक्ररत्न पूर्व दिशा में गया । राजा कनकबाहु छः खण्डों पर विजयी होकर चक्रवर्ती वना और सुख से जीवन व्यतीत करने लगा। एक वार उस नगरी में तीर्थकर भगवान श्री भुवनभानु का पदार्पण हुआ । राजा, रानी, एवं नगर-निवासी तीर्थंकर भगवान की देशना श्रवण करने के लिए गये । देशना सुन कर कनकवाहु को जातिस्मरण ज्ञान हो गया जिससे वह संसार के प्रति उदासीन हो गया। विरक्त हो जाने के कारण पुत्र को राज्य सौंपकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। उत्कृप्ट तपस्या करके, समभाव से वाईस परीपह सहते हुए तप के प्रभाव से कनकबाहु चक्रवर्ती ने श्री तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया । वे वन में कायोत्सर्ग ध्यान में रहे । उधर कुरंगक भील का जीव सातवीं नरक में घोर कष्ट भोग कर पापों का प्रायश्चित किये बिना ही मर गया जिसके परिणाम स्वरूप उसे इतने कष्ट भोगने पड़े और आगे भी भोगने पड़ेंगे। मरुभूति के जीव ने उसी भव में क्षमापना करके अपने पापों की क्षमा याचना की थी। कमठ का जीव सातवीं नरक से निकलकर इसी वन में सिंह की योनि में उत्पन्न हुआ और उसने वन में भ्रमण करते-करते काउस्सग्ग ध्यान में खड़े कनकवाहु मुनिवर को