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संयोग-त्याग अर्थात् नमि राजर्षि का वृत्तान्त
सती ने मुनि का पुत्र का वृत्तान्त पूछा।
मुनि बोले. 'सती! कुछ समय के पश्चात् उस वन में राजा पद्मरथ आया। उसने तर शिशु को देखा | उसे वह मिथिला ले गया और अपनी रानी पद्ममाला को सौंप दिया । उसने उसका नाम नमिराज रखा है।'
नमिराज बाला. 'आर्थे, तो क्या मैं सती मदनरेखा का पुत्र, चन्द्रयशा का लघु भ्राता हूँ | पद्मरथ राजा मेरे पालक पिता हैं और पद्ममाला पालक माता।' __ 'राजन! हाँ, तू युगबाहु एवं मदनरेखा का पुत्र है और मैं स्वयं मदनरेखा हूँ | मुनि के पास से निकल कर मैंने दीक्षा अगीकार की और सुव्रता नाम धारण करके मैं संयम का पालन कर रही हूँ | तुम दोनों भाइयों को युद्ध करते देख कर सच्ची वात कहने की मेरी इच्छा हुई। गुरुणी की आज्ञा प्राप्त करके मैं यहाँ आई और तुम्हें सच्ची-सच्ची बात कही।' साध्वी ने दीर्ध निःश्वास छोड़ते हुए कहा।
नमिराज न पुनः-पुनः साध्वी का अभिवादन किया और वाला. 'माता! तुम सचमुच उपकारी हो । आपने पिता तुल्य ज्येष्ठ भ्राता के प्रति अविवेक से मुझे बचाया है।'
याध्वी तुरन्त नाले के मार्ग में चंद्रयशा के पास गई और वोली, 'नमिराज तेरा भाई है।' अपना वास्तविक परिचय सुनकर दोनों भाइयों ने आलिंगन किया । चन्द्रयशा ने राज्य का परित्याग करके दीक्षा ग्रहण की और नमिराज को सुदर्शनपुर का राज्य सौंपा। ___ नमिराज को एक वार दाह ज्चर उत्पन्न हुआ | दाह को शान्त करने के लिए रानियाँ, दासियाँ आदि सव चन्दन घिसने वैठ गयीं। शय्या में लेटते हुए नमिराज का स्त्रियों के कंगनों की ध्वनि वेदना में वृद्धि करती प्रतीत हुई और वह बोला, 'यह ध्वनि बन्द करो।'
तनिक समय के पश्चात् चेतना आने पर राजा ने पुनः पूछा, 'क्या कार्य समाप्त हो गया? अव ध्वनि क्यों नहीं है?' ___ मंत्री ने कहा, 'नहीं, महाराज! चन्दन घिरसा जा रहा है परन्तु रानियाँ एवं दासियाँ कवल एक कंगन ही हाथ रख कर घिस रही है, इस कारण ध्यान नहीं है।'
रोग प्रस्त नमिराज पर इस शब्द ने जादू का प्रभाव किया । जहाँ दो हैं वहाँ शार है। अकलं को सदा शान्ति है । संयोग ही पाप का कारण हैं। आत्मा सदा सुखी हैं पर दह का संयोग दुःख दायी है। संसार के समस्त दुःख संयोग का परिणाम है । राजा ने चित्त को संयोग वियोग के तत्त्वज्ञान में पिरोया । दुःख विस्मृत हो गया और उसी रात्रि में स्वप्न आया जिसमें उसने मरूपर्वत को देखा।
प्रातःकाल हुआ । स्वप्न का विचार करते-करते राजा को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। उसको पूर्व भव का महा शुक्र देवलोक और मेरुपर्वत पर जिनेश्वर भगवान के किये गये स्नात्र महोत्सव याद आये।