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________________ श्री पार्श्वनाथ भगवान का चरित्र का हृदय अत्यन्त व्यथित हुआ | मरुभूति के मन में वरूणा के इस कथन पर सन्देह हुआ। तत्पश्चात् उसने भी अनेक स्थानों से यह बात सुनी, जिससे उसके मन में कषाय उत्पन्न हुआ। मरुभूति ने उन दोनों का दुराचार प्रत्यक्ष देख लिया, और उसने कमठ के दुराचरण के विषय में राजा अरविन्द को निवदेन किया । राजा ने अपने दूत के द्वारा पता लगाया और उनके दुराचारों के सम्बन्ध में सच्चाई जानकर कमठ को दण्ड दिया कि इस दुराचारी के कान छेद कर, मुँह पर कालिख लगा कर, उलटे मुँह गधे पर बिठाकर राज्य की सीमा रो बाहर निष्कासित कर दिया जाये, अतः राजा के आदेशानुसार कमठ को देश से निष्कासित कर दिया गया । वह भटकता हुआ तापस दीक्षा ग्रहण करके अनेक महिनों तक उपवास की तपस्या करता हुआ आश्रम में निवास करने लगा। वैराग्नि से किये गये अपने दुष्कृत्य के लिये मरुभूति को घोर पश्चाताप हुआ और वह सोचने लगा, अरे! मुझ पापी ने व्रत ग्रहण करके दूसरे के पाप राजा के समक्ष प्रकट किये, मेरे स्वयं के हाथों कुल-प्रतिष्ठा कलंकित हुई और मैने विषयवासना के आवेश में ध्यान नहीं रखा । इस तरह मैंने घोर पाप-कर्म उपार्जन किया। पश्चाताप करके मरुभूति अपने ज्येष्ठ भ्राता से क्षमायाचना करने के लिए आश्रम में गया । ज्येष्ठ भ्राता के चरणों में गिरकर उसने अन्तःकरण से क्षमा याचना की। उसके नेत्रों से अश्रु टपकते रहे और अपने दुष्कृत्य की क्षमा याचना करते हुए वह वोला, हे ज्येष्ठ भ्राता, आपके समान पुण्यशाली आत्मा पर मैंने कलंक लगाया और राजा से निवेदन करके आपको दण्ड दिलवा कर देश से निष्कासित कराया। अब मैं आपको सम्मान पूर्वक पुनः घर लौटा ले जाऊँ तो ही आपकी और मेरी आत्मा को शान्ति होगी।' यह सुनते ही कमठ को पूर्व की बातों का स्मरण हुआ और उसमें वैर का दावानाल फूट पड़ा। उसको अपना तिरस्कार कराने वाले के प्रति अत्यन्त क्रोध आया और उसके नेत्रों से मानों अग्नि बरसने लगी, उसकी मुट्ठियाँ कस गईं, दाँत किटकिटा उठे और उसके रोम-रोम में भयंकर वैराग्नि भड़क उठी। उसने समीप पड़ी हुई विशाल शिला उठा कर चरणों में गिरे हुए मरुभूति के सिर पर दे मारी, जिससे पल भर में उसका सिर चकनाचूर हो गया । कमठ के इस क्रूर आचारण से मरुभूति को घोर वेदना हुई और वह दुर्ध्यान में मर कर तिर्यंच योनि में हाथी के रूप में उत्पन्न हुआ। कमठ की ऐसी क्रूरता देख कर वहाँ उपस्थित लोग तड़प उठे और उन्होंने उसका तिरस्कार किया। उसे आश्रम में से धक्के मार कर निकाल दिया गया । अधिक तिरस्कार होने के कारण उसके हृदय में मरुभूति के प्रति पुनः वैराग्नि भड़क उठी। कमठ जंगल में इधर-उधर भटकता हुआ पशु तुल्य जीवन पूर्ण करके रौद्र ध्यान
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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