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सचित्र जैन कथासागर भाग - १ पड़े थे।
सामने खड़े लोग बोले, 'उग्र पाप तो इस भव में ही चमत्कार वता देता है। वालहत्या कोई सामान्य पाप नहीं है।'
अमरकुमार ने कुंकुम के छींटे डाले जिससे राजा तथा पुरोहितजी दोनों खड़े हो गये । सब लोगों ने अमरकुमार का अभिवादन किया । राजा ने दीन स्वर में कहा, 'कुमार! जिस आसन पर देवों ने तुम्हें बिठाया, उस आसन पर तुम सदा वैठ कर राजगृही की राज्य-ऋद्धि का उपभोग करो, क्योंकि उसके उपभोग के वास्तविक अधिकारी तुम ही हो।
'राजन्! मैंने राज्य-ऋद्धि एवं स्वजनों का प्रेम देख लिया है। राजन्! जिनके अल्प परिचय से मुझे 'नवकार मंत्र' प्राप्त हुआ और जिससे मेरा कल्याण हुआ उन्हें मैं अपना जीवन समर्पित कर चुका हूँ। मुझे नहीं चाहिये आपकी राज्य-ऋद्धि और नहीं चाहिये मान-सम्मान ।'
अमरकुमर को जातिस्मरण ज्ञान हुआ और उसने उसी स्थान पर पंच मुष्टि लोच करके संयम-वेश धारण किया ।
अमर मुनिराज वध-स्थल से वन की ओर प्रस्थान कर गए और वन प्रान्तर के एक पुनीत स्थल पर कायोत्सर्ग ध्यान में लीन हो गए।
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हरिओमपुरा
नमस्कार महामन्त्र के भावपूर्वक स्मरण करने से अग्नि की ज्वाला अमरकुमार को जला न सकी एवं राजा यमन करता हुआ व पुरोहित बेसुध हो पडे.