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(१६) सन्देह अर्थात्
झांझरिया मुनि की कथा
प्रतिष्ठानपुर नगर में मकरध्वज राजा शासन करता था। उसकी रानी मदनसेना थी । मानो काम एवं रति साक्षात् मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुए हों, इस प्रकार यह राजा और रानी सुशोभित थे। संसार-सुख का उपभोग करते हुए उनके मदनब्रह्म नामक एक पुत्र हुआ। राजा ने पुत्र का वत्तीस युवतियों के साथ विवाह किया । माता-पिता की शीतल छाया में पलते मदनव्रह्म ने संसार के समस्त वैभवों का अनुभव किया।
एक बार मदनब्रह्म झरोखे में बैठा हुआ था । उस समय उसने एक भव्य इन्द्र-महोत्सव देखा, रंग-बिरंगे वस्त्र पहन कर लोगों को जाते हुए देखा और सम्पूर्ण नगर को आनन्द से हर्प-विभोर होते देखा। मदनब्रह्म ने सेवक को पूछा, 'यह क्या है?' सेवक ने उत्तर दिया, 'यह इन्द्र-महोत्सव है।' राजकुमार नीचे उतरा और सबके साथ इन्द्र-महोत्सव में सम्मिलित हुआ। जव महोत्सव का समूह नगर के उद्यान में आया तव वहाँ विद्यमान श्रुतकेवली की देशना श्रवण करने के लिए सब प्रजाजन रुके। कुमार भी देशना श्रवण करने के लिए बैठा। श्रुतकेवली ने वैराग्यमय देशना प्रारम्भ की और कहा, 'धन, यौवन, भोग सब क्षणिक हैं। सन्ध्या के बादल आकाश में रंगविरंगी छटा उपस्थित करते हैं परन्तु वे घड़ी भर में नष्ट हो जाते हैं। आह्लादक भोजन एक प्रहर व्यतीत होने के पश्चात् दुर्गच्छनीय बन जाता हैं । उसी प्रकार यह संसार भी नश्वर एवं विरूप है।' यह वैराग्य सबके हृदय में उतरा, परन्तु मदनब्रह्म के तो आत्मा में परिणमित हुआ।
सभी मनुष्य घर आये, कार्य में लग गये और वैराग्य भूल गये परन्तु मदनब्रह्म की दृष्टि से मुनि की देशना ओझल न हुई। उसे अपना सतमंजिला महल मिट्टी के ढेर तुल्य प्रतीत हुआ, आभूषणों का बोझ मजदूर के बोझ सदृश प्रतीत हुआ, स्त्री के हावभाव मूखों की चेष्टा तुल्य प्रतीत हुए और माता-पिता का मोह नामसझी युक्त पागलपन का उद्रेक प्रतीत हुआ। मदनब्रह्म न तो किसी के साथ वात करता था, न किसी के साथ हँसता था, न बोलता