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(१४) वैयावच्च अर्थात्
महामुनि नंदिषेण की कथा
(१) जावन में ऐसे अनेक गुण हैं जो दिन और रात की तरह आते हैं और चले जाते हैं। कतिपय गुण तो अपना संस्कार अल्प समय के लिए छोड़ जाते हैं और कतिपय स्पर्श मात्र बन कर चले जाते हैं, परन्तु वैयावच्च जीवन में एक ऐसा गुण है कि जो आत्मा में अपना संस्कार चिरस्थायी रखता है। नंदिपेण का जन्म मगध के नंदि गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण के घर हुआ था । पिता का नाम था चक्रधर और माता का सोमिला । धन-सम्पत्ति निर्धनता का भले ही भेद करे परन्तु रनेह के अंकुर के ऐसा भेद नहीं है । अतः निर्धन व्राह्मण चक्रधर ने पुत्र का नाम नंदिपेण रखा।
नंदिपेण चरण धरने लगा और उसके अंगों का धीरे धीरे विकास हआ। खेजड़ी का वृक्ष जिस प्रकार चारों ओर नीम-पीपल देख कर लज्जित होता है उसी प्रकार नंदिषेण छोटे-छोटे सुन्दर कुमारों में अपने रस्सी जैसे दुवले हाथ-पाँव और गगरी तुल्य पेट जैसे अपने अंगों के कारण लज्जित होने लगा, परन्तु उस विषय में उस के हाथ कोई उपाय नहीं था।
नंदिषेण के तनिक बड़ा होते ही माता-पिता का देहान्त हो गया । कुरूप नंदिषेण को लड़के छेड़ते थे, अड़ौसी-पड़ौसी उसका तिरस्कार करते और कोई दया बता कर रोटी प्रदान करके उपकार भी करते थे। नंदिषेण की यह दयनीय स्थिति देखकर उसका एक दूर का मामा उसे अपने घर ले गया।
(२) 'वन वैरी को वश में करते हैं' - इस कहावत को नंदिषेण ने जीवन में उतारा और मामा के घर पर प्रत्येक कार्य वह ध्यान से करने लगा। कोई भी कार्य बताए तो नंदिषेण उसे करने के लिए तत्पर रहता । मामा, मामी और उनकी सातों पुत्रियों को नंदिषेण प्रिय हो गया ।
नंदिषेण अव युवा हो गया । उसने सम वयस्क युवकों को घर-परिवार, पत्नी, पुत्र वाले देखा । नंदिषेण के मन में उनके सुख की ईर्ष्या नहीं थी परन्तु मैं ऐसे ही मजदूरी कव तक करता रहूँगा?' मुझ में और इनमें किस कारण से यह अन्तर हुआ? इसका