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________________ विश्वासघात अर्थात् विसेमिरा की कथा मित्रद्रोही कृतघ्नश्च, स्तेयी विश्वासघातकः । चत्वारो नरके यान्ति यावच्चंद्रदिवाकरौ ।। 'मित्र का संहार करने का अभिलाषी, कृतघ्न, चोर एवं विश्वासघातक ये चारों जब तक सूर्य-चन्द्रमा उगते हैं तब तक नरक में रहते हैं ।' 'मिरा मिरा' बोलता हुआ राजकुमार 'रा' 'रा' वोलने लग गया । 'विसेमिरा विसेमिरा' के तीन अक्षर छूट गये। राजा, मंत्री सव आश्चर्यचकित होकर देखते रहे । यह क्या बोला जा रहा है और उससे ये अक्षर क्यों छूट रहे हैं, इसका उन्हें कोई पता नहीं लगा । शारदानन्दन ने पर्दे के पीछे से चौथे श्लोक का उच्चारण किया राजंस्त्वं राजपुत्रस्य यदि कल्याणमिच्छसि । देहि दानं सुपात्रेषु गृही दानेन शुद्ध्यति ।। ६३ 'राजन्! अपने पुत्र का कल्याण चाहते हो तो सुपात्र को दान दे क्योंकि गृहस्थ दान से ही शुद्ध होता है ।' राजकुमार के नेत्रों में से पागलपन चला गया, वह स्वस्थ हो गया और उसने बन का समस्त वृत्तान्त राजा एवं मंत्री को कह सुनाया । राजा पर्दे की ओर हाथ जोड़कर बोला, 'पुत्री! तेरा मुझ पर तथा राज्य पर महान् उपकार है, परन्तु मैं तुझे पूछता हूँ कि निरन्तर तलघर (गर्भगृह) में रहने वाली तुझे यह वन में घटित हुई बन्दर, वाघ और मनुष्य की बात कैसे ज्ञात हुई ?" 100 अगोचर घटनाओं को भी अपनी जीभ पर बसी सरस्वती की कृपा से व्यक्त कर शारदानंदन ने राजा की शंका को निर्मूल किया. राजा ने अपने जीवन से विश्वासघात पाप को तिलांजली दे दी.
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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