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आरसा भवन में केवलज्ञान अर्थात् चक्रवर्ती भरत
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बाहुबली को तक्षशिला का राज्य और अन्य पुत्रों को भिन्न-भिन्न राज्य प्रदान करके स्वयं ने दीक्षा ग्रहण की। भरत माण्डलिक राजा वना ।
(२)
प्रातःकाल का समय था । भगवान भुवन भास्कर ने अभी अभी ही अपनी स्वर्णिम किरणों की चादर पृथ्वी पर फैलाई थी ।
अयोध्या के राजप्रसाद के एक विशाल कक्ष में अत्यन्त वृद्धा राजमाता मरुदेवा वैठी थीं। इतने में वहाँ भरतजी आये और वोले, 'माताजी! मेरा वन्दन स्वीकार करें ।' माता बोली, 'कौन ? भरत है ?'
'हाँ माताजी, मैं भरत हूँ । आप सकुशल तो हैं न?' यह कहते हुए भरतजी ने मरुदेवा माता के चरणों का स्पर्श किया।
'सकुशल' शब्द सुनकर माता का हृदय भर आया। उनके नेत्रों में आँसू छलक आये और वे बोली, 'पुत्र भरत ! ऋषभ के बिना मैं सकुशल कहाँ से हो सकती हूँ? मेरी कुशलता ऋषभ की कुशलता में है । ऋषभ ने मेरा, तेरा और सबका परित्याग किया । एक समय था जब उसके सिर पर चन्द्रमा की कान्ति तुल्य उज्ज्वल छत्र रखे जाते थे, वह ऋषभ आज नंगे सिर और नंगे पाँव भटकता है । पुत्र ! इस ऋषभ के लिए देव कल्पवृक्ष भोजन तथा क्षीर सागर के जल प्रस्तुत करते थे, वही आज घर घर भिक्षा माँगता है । जिसके समक्ष पंखे झलने वाली स्त्रियों के कंगनों की मधुर ध्वनि होती थी, वही ऋषभ आज वन के मच्छरों की गुनगुनाहट में कायोत्सर्ग ध्यान में खड़ा रहता है । पुत्र ! वह वाघ, भेडियों में कैसे रहता होगा ? तू और बाहुबली सव राज्य का उपभोग कर रहे हो। तुम मेरे पुत्र की तनिक भी परवाह नहीं करते । भरत! मैं किसको दोष दूँ ? दोष मेरे अपने भाग्य का है । धिक्कार है मुझे कि ऋषभ जैसा पुत्र पाकर भी वृद्धावस्था में मुझे वियोग सहना पड़ा। मैं तो अभी ही उसके पीछे उसकी देख-रेख करने के लिए दौड़ जाती, परन्तु क्या करूँ? मैंने उसके वियोगजन्य - दुःख में रो-रोकर अपनी आँखें खो दी हैं। भरत! अधिक नहीं तो वह कहाँ है और क्या करता है उसके समाचार तो दे दिया कर ।' यह कहती हुई माता मुक्त हृदय से रो पड़ी ।
भारत के नेत्र भर आये फिर भी धैर्य धारण करके वे बोले, 'माताजी! आप दुःख न करें। आप त्रिभुवनपति ऋषभदेव की माता हैं, तीन लोक के आधार जो प्रथम तीर्थंकर बनने वाले हैं उन आदीश्वर की आप जननी हैं । माताजी! जिनका नाम स्मरण करने से दूसरों को उपद्रव नहीं होते, उन आपके पुत्र को उपद्रव कैसे हो सकते हैं? आप मन में अधीर न बनें। आप तो विश्व के तारणहार पुत्र के त्याग का अनुमोदन करें ।'
तत्पश्चात् भरत अश्रुपूर्ण नेत्रों से माता के चरण स्पर्श करके अपने आवास पर