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________________ सत्त्व अर्थात् महाराजा मेघरथ का दृष्टांत समस्त परिवार एवं साथ खड़े हुए सभी लोग रो पड़े और राजा को कहने लगे, 'राजन्! आप अपना विचार क्यों नहीं करते? आपके द्वारा हजारों का पालन होता है वह सोचो | आप एक कबूतर को बचाने में प्राण खोओगे तो हमारे जैसे हजारों लोग बरबाद हो जायेंगे, बे-मौत मारे जाएंगे।' 'आप घबरायें नहीं, और मुझे अपने कर्त्तव्य से भ्रष्ट न करें। जो व्यक्ति एक शरणागत पक्षी की रक्षा नहीं कर सकता वह हजारों मनुष्यों की रक्षा कैसे कर सकेगा?' राजा ने दृढ़ता पूर्वक कहा। __ इतने में वाज बोला, 'राजन्! तत्त्वों की चर्चा करना छोड़ो, मेरे प्राण निकल रहे हैं। मेरा शीघ्र न्याय करो। मुझे कबूतर के तोल के बराबर माँस दो।' राजा ने तीव्रता से चाकू चलाया । दूसरी जाँघ चीर कर माँस के टुकड़े तराजू में रखे, परन्तु पलडा तो झुका ही नहीं, ज्यों का त्यों रहा। ऐसा क्यों हुआ इसके लिए राजा को आश्चर्य हुआ परन्तु उसका अधिक विचार न करके वह तुरन्त खड़ा हो गया और स्वयं जाकर पलड़े में बैठ गया। महाजन आदि सब राजा को रोकने लगे कि 'महाराज! आप ऐसा न करें।' मंत्री एवं प्रजाजनों ने कहा, 'राजन! आप यह क्या कर रहे हैं? एक पक्षी के लिए आप अपनी पूरी देह समर्पित कर रहे हैं? कह कर मुँह में अंगली दबा कर वे आश्चर्य चकित होकर रोने लगे। परन्तु राजा का तो एक ही उत्तर था, 'शरणागत की रक्षा में पीछे नहीं हटा जा सकता।' याज बोला, 'राजन्! मुझे तेरी देह की आवश्यकता नहीं है । मुझे तेरे राज्य एवं परिवार को बर्बाद नहीं करना है। मैं तो माँग रहा हूँ केवल मेरा भक्ष्य यह कबूतर । यदि यह तेरे पास नहीं आया होता तो तू थोड़े ही इसकी रक्षा करता?' राजा ने कहा, 'विहंगराज! शरणागत की रक्षा मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है। मेरी देह से उसकी रक्षा होती हो तो तुम इस देह को काटकर कबूतर की रक्षा होने दो।' ___इतने में आकाश में से पुष्प- वृष्टि हुई - 'महाराज मेघरथ की जय, महाराज मेघरथ की जय' पुकारती हुई एक दिव्य आकृति प्रकट हुई। राजा समझ गया कि यह कोई देव है परन्तु वह कुछ कहे उससे पूर्व ही वह आकृति स्वयं बोली - 'महाराज! मैं ईशान देवलोक का सरूप नामक देव हूँ । एक बार ईशानेन्द्र ने आपकी प्रशंसा की कि 'वाह! क्या मेघरथ राजा का सत्त्व है!' मुझे उस सम्बन्ध में शंका हुई और मैंने बाज एवं कबूतर में अधिष्ठित होकर तेरी परीक्षा ली। राजन्! क्या बताऊँ? इन्द्र ने प्रशंसा की उससे भी तु सवा गुना सत्त्वशाली है। राजा ने अपनी जाँघों एवं देह की ओर दृष्टि डाली तो वहाँ न तो घाव थे और
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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