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हिंसा का रुख अर्थात् आत्मकथा की पूर्णाहुति
१२१ का परभव नहीं सुधरता। शास्त्रों में परहत्या के समान ही आत्महत्या को हिंसा के रूप में माना है। __'भगवन्! यदि संसार में मेरा उद्धार सम्भव हो तो मुझे दीक्षित करो, परन्तु क्या प्रव्रज्या से मेरी शुद्धि हो सकेगी?' राजा ने अनुनय विनय करते हुए कहा। - मुनिवर बोले, 'राजन्! धूप चाहे जितने कीचड़ को सुखा देता है, उसी प्रकार तप एवं संयम चाहे जैसे कठोर कुकर्म को भी जला डालता है। घोर पाप का नाश करने के लिए कठोर तप एवं कठोर संयम ही समर्थ हैं।'
मारिदत्त! बस उसी क्षण गुणधर राजा ने हमें बुलाने के लिए अपने सेवक नगर में भेजे।
सेवकों ने हमें सूचित किया कि राजा तुम लोगों को नगर के बाहर उद्यान में तुरन्त खुला रहे हैं। मैं एवं मेरी बहन ही नहीं परन्तु हमारे साथ अन्तःपुर की रानिया, दासिया, सामन्त, मंत्रीगण साथी एवं अनेक नगर-निवासी दौड़ते हुए वहाँ आये जहाँ राजा एवं मुनिराज थे। सम्पूर्ण नगर रिक्त हो गया।
जब हम राजा के पास आये तब वे मुनिराज के चरणों में शीश झुकाये पड़े थे। उनके नेत्रों से सतत अश्रु-प्रवाह हो रहा था। उनका मुख-मंडल म्लान था। वे अनाथ, अशरण मनुष्य के समान विकल प्रतीत हो रहे थे। मैंने पूछा, 'पिताजी! ऐसी अचानक क्या आपत्ति आ गई कि आप इतने उदास हो गये हैं? कठोर दिल वाले होकर आप बालक की तरह क्यों रो रहे हैं? पूज्य! आप शीघ्र उत्तर दो। हम सब आपके आधार पर जीवन टिकाये रखने वाले हैं। हमसे आपका यह दुःख सहन नहीं हो रहा है।'
राजा आंसू पोंछते हुए बोले, 'पुत्र! मेरे मंत्रीगण! नगर-निवासियों! मैं सुख-शान्ति पूछने योग्य मनुष्य नहीं है। मैं चाण्डाल एवं हत्यारे की अपेक्षा भी अत्यन्त भयंकर हूँ। नाम से तो मैं गुणधर हूँ परन्तु अवगुणों का भण्डार हूँ। मैंने अनेक बार अपने पिता एवं दादी का स्वयं के हाथों वध किया है, उन्हें सताया है। मैं उनका मांस भक्षण करने वाला नर भक्षक चाण्डाल मनुष्य हूँ। जगत् में जैसी माता होती है वैसा उसका पुत्र होता है। मेरी माता ने दयालु राजा पति का संहार किया तो उसका पुत्र मैं पितृधातक होऊँ उसमें क्या आश्चर्य है ? हे नगर-जनो! मुझे 'चिरंजीव' कह कर मत पुकारो। ऐसा कहो कि पृथ्वी से शीघ्र अपना बोझा कम करो। मैं प्रजा का पालक न होकर संसार में भार-स्वरूप हूँ। पत्नियों! तुम मुझसे दूर हट जाओ। मैं अब मोह-पाश में फंसना नहीं चाहता। मैं अव आत्म-कल्याण करूँगा। तुम लोगों को यदि उचित प्रतीत हो तो तुम भी आत्म-कल्याण करो। मैंने मोह-वश आज पर्यन्त तुम्हारे जो अपराध किये हों,