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सचित्र जैन कथासागर भाग - २ परन्तु आपका वध करने के लिए इन कुत्तों को भी छोड़ा । अतः मैं ऋषि-घातक हूँ। भगवन्! मैं क्या प्रायश्चित करूँ तो मेरे इस पाप का निस्तार हो?'
मुनि ने शान्त वाणी में कहा, 'राजन्! तीव्र पश्चाताप पाप का नाश करता है। आपके हृदय में ऐसा तीव्र पश्चाताप हुआ है और साथ ही साथ आप में सद्धर्म के प्रति रुचि भी प्रकट हुई है जिससे तुम्हारा कल्याण है। आप मेरी ओर से अपना अहित होने की आशा न रखें। कोई भी व्यक्ति किसी का अहित नहीं कर सकता । जो जिसका निमित्त होता है वह होता है | मुझे तुम्हारे प्रति तनिक भी रोप नहीं है। मैं तो तुम्हें उत्तम पुरुष मानता हूँ क्योंकि पाप-प्रवृत्त मनुष्य भी तनिक निमित्त मिलने पर बदल जाता है और धर्म के प्रति रुचि युक्त वने वह कोई अल्प कल्याणकारी नहीं है। तुम भविष्य में भी उत्तम पुरुष वनने वाले हो। राजन्! अव शोक मत करो। पाप की तुमने पूर्ण निन्दा की है, परन्तु अव सुकृत करके तुम आत्म-कल्याण करो।' ।
राजा गुणधर ने कहा, 'भगवन्! आपकी मुझ पर महती कृपा है, मैं महा पापी हूँ फिर भी आपने मेरा अनादर नहीं किया | मैंने आपको दुःख दिया फिर भी आपने मेरा तिरस्कार नहीं किया ! मैंने कल्याण-अकल्याण के सच्चे स्वरूप को समझे बिना आप जैसे पवित्र पुरुप को अपशकुन माना । मैं इतना मुर्ख हूँ फिर भी आपने मेरी निन्दा नहीं की । क्या यह आपका कम उपकार है? मुझे तो प्रतीत होता है कि आप जैसे की ऐसी हमान कृपा मुझ पर है उसका कारण मेरा सुकृत नहीं है, परन्तु मेरे पूज्य पिताश्री सुरेन्द्रदत्त की उत्तम जीवन-सौरभ ही मेरी सहायक वनी प्रतीत होती है; अन्यथा मझ जैसे भयंकर पापी को ऐता उत्तम संयोग कहाँ से प्राप्त होता? भगवन्! मेरे पिताश्री अत्यन्त उत्तम थे। उनकी दीक्षा ग्रहण करने की भावना थी, परन्तु किसी घोर अन्तराय के कारण उनकी भावना पूर्ण नहीं हुई। ऐसे पिता का मैं पुत्र हूँ फिर भी मुझ में लेश मात्र भी विनय अथवा धर्म का अंश मात्र नहीं है।' ___ मुनिवर ने कहा, 'राजन्! पिता के वे सव धार्मिक गुण तुम्हें भले ही नहीं मिले परन्तु आज जो तेरे हृदय में पाप का पश्चाताप है वह उनके गुणों के आकर्षण के कारण ही है न? राजा तनिक आश्वस्त वन और अपना भारीपन दूर कर तथा यदि तुझे कुछ पूछना हो तो सहर्प पूछ।'
राजा गुणधर ने कहा, 'जव धर्म जिज्ञासा जाग्रत होती है तव ही संशय होता है न? आज पर्यन्त तो धर्म की जिज्ञासा ही नहीं थी जिससे संशय कैसे होता? भागवन्! मेरे पिता एवं पितामही अत्यन्त धर्मनिष्ठ एवं उत्तम थे । उनके जीवन की उज्ज्वलता आज भी सम्पूर्ण मालवा में घर-घर गाई जाती है। भगवन्! उनकी मृत्यु के पश्चात् अव वे कहाँ हैं? मुझे अपने सम्बन्ध में तो पूछने योग्य कुछ है ही नहीं, क्योंकि मैंने तो जन्म लेकर कोई सुकृत किया ही नहीं।'