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________________ ११२ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ परिचर्या करूँ उससे पूर्व तो उनकी मृत्यु हो गई। कालदण्ड ने पुनः मुनि को प्रणाम किया और तत्पश्चात् वह बोला, 'भगवन्! आप मेरे परम उपकारी हैं। मनुष्य दर्पण में चेहरा देखने के पश्चात अपने चेहरे के दाग स्वच्छ न करे, ऐसा तो कोई ही मुर्ख होगा। उसी प्रकार मैंने हिंसा का परिणाम और संसार की विचित्रता आपके प्रताप से जान ली है, फिर में संसार का भरोसा क्यों करे? भगवन्! क्या मुझ पापी का उद्धार होगा? क्योंकि मैं घोर पापी हूँ। मैंने जन्म लेकर अनेक हिंसाएँ करने में पीछे मुड़ कर नहीं देखा, फिर भी मुझे आपके दर्शन हुए और समागम हुआ जिससे मैं मानता हूँ कि मेरा कुछ सुकृत भी जागृत है? मुनिवर ने कहा, 'कालदण्ड! पनिहारिन कुँए में घड़ा और सत्रह हाथ लम्वी रस्सी डालती है परन्तु उसके हाथ में यदि चार अंगुल रस्सी शेष रहे तो वह उसके सहारे से घड़ा और रस्सी सव वाहर निकाल लेती है; उसी प्रकार मानव रूपी रस्सी का किनारा आपके हाथ में है तव तक आप अपनी आत्मा का जैसा सोचेंगे वैसा उद्धार कर सकेंगे। मैं तो उद्धार का मार्ग अहिंसा सम्पूर्ण सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह बताता हूँ | कालदण्ड! यदि तुम उससे परिचित नहीं हो तो अभी उन अहिंसा व्रतों को देश से स्वीकार करने के रूप में श्रावक-धर्म को तो अवश्य स्वीकार कर ही लो। कालदण्ड को धर्म के प्रति श्रद्धा हुई, उसने हिंसा को तिलांजलि दी और अन्य अनेक छोटे-बड़े व्रत ग्रहण करके वह शुद्ध श्रावक बना। (२) इस ओर राजा गुणधर मुर्ग-मुर्गी के वृत्तान्त से अपरिचित था। इसलिए वह अपने शब्दवेधी गुण के प्रगट प्रमाण से गर्वोन्नत हुआ । उसने रानी जयावली को कहा, देखी मेरे शब्दवेधि गुण की दक्षता? तत्पश्चात वह रानी के साथ विषय-भोग में प्रवृत्त हुआ। मारिदत्त! देखो कर्म की विचित्रता! वह मुर्गा और मुर्गी वने मैं एवं मेरी माता दोनों अपने ही पुत्र-वधु जयावली की कुक्षि में पुत्र-पुत्री के रूप में उत्पन्न हुए। इस भव में राजा गुणधर जो पूर्व में मेरा पुत्र होता था, वह यहाँ पिता वना और पुत्रवधु जयावली मेरी माता बनी। __ जैसे ही जीव गर्भ में आता है वैसे ही गर्भधारण करने वाली माता को दोहले होते हैं तदनुसार मरते समय हमारे समता के परिणाम होने से जयावली में भी तुरन्त समता आ गई। उसने राजा को अनुनय-विनय करके गर्भ धारण काल में शिकार पर जाना छुड़वाया, कारागार से वन्दियों को छुडवाया, पिंजरे में वन्द पक्षियों को अपनी इच्छानुसार धूमने के लिए मुक्त कराये, मछुओं के जाल वन्द कराये और शिकारियों के शिकार भी उसने रुकवाये । राज्य भर में 'मारना' ऐसा शब्द बोलना भी यन्द कराया।
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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