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________________ ९२ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ हुआ कुछ भी बोले विना लेटा रहा। अतः नयनावली समझी कि मैं नींद ले रहा हूँ और वह उठ बैठी और धीमी कदमों से शयनागार से बाहर निकली। मैं चौंका, मेरे विरह से दुःखी होकर यह कहीं आत्महत्या नहीं कर ले । मैं भी उसकी रक्षा के लिए हाथ में तलवार लेकर उसके पीछे चल दिया । शयनागार से बाहर आकर नींद करते कुबड़े सन्तरी को उसने मधुर वचन कह कर जगाया। मैंने समझा कि मेरे सम्बन्ध में कुवड़े को कोई विशेष कार्य बताने के लिए यह आई प्रतीत होती है, परन्तु सन्तरी ने जाग्रत होते ही कुलटा! इतना विलम्ब क्यों किया?' यह शब्द बोला अतः मैं समझा कि रानी व्यभिचारिणी है, कुलटा है; फिर भी अभी तक मेरे मन में यह निश्चय नहीं हुआ था। मैं मानता था कि कदाचित् यह नींद में वोलता होगा। उसने एक डण्डा लिया और नयनावली की चोटी पकड़ कर दो-तीन जमा ही दिये । नयनावली उसके पाँव पकड़ कर कहने लगी, 'नाध! मैं क्या करूँ? राजा को नींद आये तय आऊँ न? मैं कोई स्वतन्त्र थोड़े ही हूँ? मेरा अपराध क्षमा करें, स्वामी! मैं पुनः ऐसा नहीं करूँगी।' मैं इस पर गहराई से विचार करता, इतने में तो मेरे समक्ष एक के पश्चात् एक नवीन दृश्य प्रारम्भ हुए। कौआ और कोयल जैसे परस्पर एक दूसरे पर आसक्त होते हैं उस प्रकार उसी कुबड़े ने और नयनावली ने शयनागार के वाहर समागम किया। __ मैंने अपनी रानी का यह चरित्र अपनी आँखों से देखा । सामान्य मनुष्य भी पत्नी का भ्रष्ट चरित्र सुन कर क्रोधावेश में न करने योग्य कार्य भी कर डालता है तब मैं तो राजा था। मेरे हाथ में तलवार थी और रानी का दुराचरण मैंने अपनी आँखों से देख लिया था। अतः मेरे हृदय में वैराग्य का जो झरना प्रकट हुआ था वह देखते ही देखते अदृश्य हो गया। मैंने क्रोधावेश में तलवार म्यान से बाहर निकाली, परन्तु मैं सर्व प्रथम इस कुलटा रानी का संहार करूँ अथवा कृतघ्न कुघड़े का संहार करूँ - इस विचार में दूसरे ही क्षण विचार आया कि मेरी इस तलवार ने मदोन्मत्त हाथियों के समूह का संहार किया और भयंकर शत्रुओं के सिर काटे हैं, उसे मैं एक पामर कुबड़े पर क्यों चलाऊँ? तदुपरान्त कल मुझे संयम ग्रहण करना है इस समय में इस कुलटा का संहार करके स्त्री-हत्या का पाप क्यों लूँ? मुझे नयनावली एवं कुवड़े दोनों पर दया आई । मैंने तलवार म्यान में डाल दी। उनके छिद्र देखने का अथवा उनके जीवन में रुचि लेने की मेरी इच्छा नहीं हुई। अनृतं साहसं माया, मूर्खत्वमतिलोभता। अशीचं निर्दयत्वं च, स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः ।। असत्य, साहस, माया, मूर्खता, अति लोभ, अपवित्रता एवं क्रूरता स्वाभाविक तौर से स्त्रियों में होती हैं - यह सुक्ति मुझे अक्षरशः सत्य प्रतीत हुई। उक्त दृश्य देख कर मुझे अत्यन्त खेद हुआ था, फिर भी मेरा मन संयम में दृढ़ नहीं होता तो मैंने उन दोनों
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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