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________________ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ स्वप्न को सत्य करने का मैंने निश्चय किया है। आजकल में ही गुणधरकुमार का राज्याभिषेक करके मैं दीक्षा अङ्गीकार करूँगा।' माता के नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई । वह बोली, 'अन्य बातें सव वाद में। इस दुःस्वप्न का गोत्र (कुल) देवी को प्रसन्न करके पहले प्रतिकार करना चाहिये । दीक्षा कोई दुःस्वप्न का प्रतिकार नहीं है । पुत्र! हमारी गोत्रदेवी महाकाली है। उसके समक्ष समस्त प्रकार के पशु पक्षियों के युगल की वलि देकर उसे प्रसन्न करके तू पहले इस दुःस्वप्न का प्रतिकार कर ।' मैंने अपने कानों में अंगुलियाँ डाल लीं। 'माता! आप यह क्या कह रही हैं ? दुःस्वप्न से मृत्यु कल होती हो तो भले ही आज हो जाये, परन्तु मैं निर्दोष प्राणियों की हिंसा तो कदापि नहीं करूँगा।' __ माता बिलख-बिलख कर रुदन करने लगी। मैं किंकर्तव्यविमूढ हो गया। माता की बात नहीं मानने पर मैं अविनयी गिना जा रहा था और उसके कथनानुसार करने से जीव-हिंसा का महापाप लग रहा था । अतः मैंने तलवार ली और उसे अपना सिर काटने के लिए उठाया, परन्तु सव लोगों ने मुझे पकड़ लिया और मेरी तलवार छीन ली। माता ने कहा, 'पुत्र! देवी को दिये जाने वाले बलिदान में जीवों की हिंसा वह जीवहिंसा नहीं है, फिर भी यदि तुझे इसमें जीव-हिंसा ही प्रतीत होती हो तो त किसी भी प्राणी की आटे की आकृति बना कर उसकी बलि चढ़ा कर देवी को प्रसन्न करें तो क्या आपत्ति है?' मैंने कहा, मैं तो इस प्रकार देवी को प्रसन्न करने में विश्वास ही नहीं करता, परन्तु यदि आटे का प्राणी वनाकर उसकी बलि चढ़ाना हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है।' इतने में मुर्गे ने याँग दी। माता ने गेहूँ के आटे का एक सुन्दर मुर्गा बनाया। मुर्गे की चोंच और उसके पैर हलदी से रंग कर पीले बनाये । उसकी शिखा गेरू से रंग दी और उसकी देह को भी लाख के रंग से रंग दी। दूर से देखने वाले को यह मुर्गा कृत्रिम प्रतीत नहीं होता था। सब को यही प्रतीत होता मानों मुर्गा वास्तविक ही है। राजन्! अपनी माता की प्रेरणा से मैंने स्नान किया, लाल वस्त्र धारण किये । वाद्ययन्त्रों की ध्वनि के मध्य मुर्गे को आगे रख कर हम परिवार सहित कुलदेवी चण्डिका के मन्दिर में आये। मैंने कुलदेवी को नत मस्तक होकर प्रणाम किया और उसके समक्ष
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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