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३३. आश्रय
_शांत सुधारस नवकार !
जब मेरा शरीर असहय ताप से तप्त, भयंकर तृषा से तृषित और दुर्गधत मल से मलिन होता है, तब जलाशय का आश्रय ग्रहण करता है। जलाशय के आश्रय से ताप, तृष्णा और मल का कहीं नामोनिशान नहीं रहता। शरीर से दूर हो जाते है। परिणामस्वरूप सर्वत्र एक अनोखी शीतलता, तृप्ति और निर्मलता का अनुभव होता है । अतः हे प्रिय नवकार, मुझे लगा कि तुम्हारे अन्तर्वरूप सरोवर की शरण में यदि मैं पहुँच जाऊँ तो ...? . . . . तो ! क्रोध के उत्ताप का शमन हो जाय तृष्णा की तृषाणु का शमन हो जाय और मोह के मैल का शमन हो जाय यदि इस प्रकार हो जाय तो? तो.... मैं शुद्ध, बुद्ध और मुक्त बन जाऊँ। परम पद को पा जाऊँ । परम आनन्द की अनूभुति का अनुभव करूँ !
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हे नवकार महान
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