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१५. खेद नहीं
वंद्य शिरसावंद्य नवकार!
तुमने मेरे प्राणों में अजीब शक्ति भर दी है यदि अब मेरी मृत्यु हो जाएँ तो भी मुझे कोई भय नहीं, पीडा नहीं, ना ही कोई वेदना....व्यथा है आज तक मृत्यु के नाम से ही कंपित था मन शंका कुशंका, संदेह विमनस्कता की घटाएँ घिर आती थीं मन प्रदेश पर ! अनजाने ही मृत्यु का भय बस जाता था, और तन मन, रोम रोम सिहर उठता था ! लेकिन आपने वह भय ही भगा दिया। प्राण पखेरू उड भी जाए तो अब कोई खेद नहीं। मुझे भली भाँति विदित है कि अव भी मैं समर्पण भाव से तुम्हें स्वीकार नहीं सका हूँ। और इसी कारण पूर्णता पूर्ण पूर्णता का वरदान पा नहीं सका हूँ। फिर भी जो कुछ मिला है, पूर्वभव के पुण्योदय से ही मिला है। तुमने मुझे अपना सुखद स्पर्श दिया है.... स्पष्ट आभास दिया है और 'तुम सर्वत्र विद्यमान हो' की अनुभूति दी है।
हे नवकार महान
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