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॥ ॐ ही अहूँ नमः ॥ पुरा वचनविश्वके सभी धर्माने “ अहिंसा धर्मका प्राण है यह एक आबाजसे माना है।" कोई भी धर्म चाहे तो यह जैन-वैदिक बौद्ध ईसाई-पारसी या इस्लाम क्यों न हो कोई भी धर्म का ऐसा सिद्धान्त नहीं है कि कोई जीव को दुःख पहुंचाने से या उसका घध-हिंसा करने से पुण्य होता है, अपि तु प्रत्येक धर्म का यह मूल सिद्धान्त है कि कोई भी जीवको दुःख मत-पहुचाओ, काई भी जीवका धध मत करो । दुःख पहुंचाने से था उसका बघ करने से महान् पाप होता है । सभी धर्मा का यही मन्तव्य है कि अहिंसा के पालन में जो मनुष्य जितना आगे बढा हुआ है वह उतना ही महान् अर्थात् विश्वमें वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है. जो कि महान् अहिंसक हैं।
यद्यपि उन सभी धर्मो में जैन धर्म की मानी हुई भहिंसा सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। अहिंसा के विषय में जितनी गवेषणा-खोज जैनधर्म ने की हैं यहां तक काई सायद ही पहुंच सका हो । जैन धर्म का अहिंसाका विषय केवल मनुष्य या पशु तकही सीमित नहीं है, किन्तु एकेन्द्रिय से लेकर स चराचर विश्व तक व्याप्त है । विश्वका काई भी प्राणी इसमें बाकी नहीं रहता । जैन धर्म ने अहिंसा का विचार जिस तरह सूक्ष्म रीति से किया है, उसी तरह आचार में भी उसको पूर्णतया उतारने का प्रयत्न किया
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