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हे दयामय !
हे दयामय ! क्या दया का सिन्धु अब निर्जल बना है ? लहलहाता धर्म कानन आज क्या मरुथल बना है ? १
चंड कोशिक के बुझ सके हिंसाग्नि
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एक दिन धमकी दीवाली फिर यहां छाया अंधेरा, नाथ मानव को यहां अघ-ओघ ने है पुनः घेरा । मुक्ति पाकर विश्व के उपकार से भी मुक्त क्या मुम ? हमें नव सन्देश भेजा, होन इतने शक्त क्या तुम ? चेतना का भाग्य निर्माता पुनः पुद्गल बना है ॥
२
बस
मर रहे प्यासे पपी है. इस रहे दानव सुबुध दया मैत्री बह गए आज हिंसा उदधिका है गगन
द्वारा,
तक पहुँचा किनारा ।
सबल का आहार स्वामी ! आज फिर निर्बल बना है ॥
काक अमृत पी रहे हैं, आह भर कर जी रहे हैं। ऐटम-:
- प्रलय - जलधार
प्रबोधक, कुछ नया उद्बोध भेजा, पेसा नाथ ! धर्म पयोद भेजा ।
( अनुसंधान टाइटल ३ उपर )
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