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उस परमात्म पद को प्रकट करने के लिये प्रबल निमित्त परमात्म-भक्ति
है ।
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अपने आप में मस्त रहने में ही मजा है । आत्मा स्वयं में पूर्ण है । उसकी उपासना ही परमात्म स्वरूप की जननी है । आत्मा का रंग जीवन में फैल जाय, अपने अध्यवसायों में उसी का अनुभव हो। इसी में मानव भव की सफलता हैं
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अपनी परिणती आदरी, निर्मल ज्ञान तरंग |
रमण करू निज रूप में, अब नहीं पुद्गल रंग ।।
प्रगट सिद्धता जेहनी, आलंबन लही तास ।
शरण कर महा पुरुष को, जेम होय विकल्प विनास ।। सती को यह कहना नहीं पड़ता, कि पर पुरूष का ध्यान मत करो । क्योंकि वह सत् तो उसे परिणत है । वैसे आत्मा ही आत्मा का पति है । देव है । प्रभु है, सर्वेसर्वा हैं ।
जीवन का अस्तित्व आत्मा ही तो है ।
उस आत्मा के अतिरिक्त अन्य में रमणीयता भाव- मृत्यु है भव भ्रमण की सर्जक है
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