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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 64 हे स्वामिन्! आज मुझे आपका दर्शन प्राप्त हो गया, इस कारण में अमृत समुद्र में डूब गया हूँ । जिसके हाथ में चिंतामणि स्फुरायमान है, ऐसे व्यक्ति के लिये कोई भी वस्तु असाध्य नहीं है । 17 44 हे जिनेश्वर देव! संसार- महासागर में डूबते हुए मुझ जैसे के लिये आप जहाज समान हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आप ही उत्तमोत्तम सुख के धाम हैं, तथा मुक्ति वधू प्राप्ति में आप अद्वितीय हैं। मुझे भवसागर से पार उतार कर परम पद मोक्ष को आप ही सुलभ कराने वाले हैं। " " वीतराग देव सूर्य के समान हैं। उनका स्वभाव ही जगत् को प्रकाशित करना है, अतः जो मुमुक्षु उनका ध्यान करते हैं, उनका संसार सृजन का मूल बीज अहम् और मम रूप मल सहज क्षीण होते हैं " 1 44 ====== परमात्म ध्यान द्वारा पुण्यानुबंधी पुण्य का उपार्जन कर देव व नर भवों में भोगावली कर्मों को भोग कर क्रमशः वह जीव मोक्ष सुख का अधिकारी बनता है । जिसका लक्ष्य ही वीतरागता है, वह उसे इस प्रकार अवश्य प्राप्त होता है । " 15 For Private And Personal Use Only
SR No.008706
Book TitleBikhre Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size3 MB
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