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धर्म असीम उज्ज्वलता है । धर्म की प्रभावना के लिए मनुष्य को प्रभावी रूप से प्रयास करना चाहिए । धर्म श्रद्धा से प्रवर्तित होता है और श्रद्धा से ही संचरित व संचालित होता है। श्रद्धा व निष्ठा धर्म के अन्तः प्राण है। श्रद्धा व निष्ठा आत्मा की प्रवृत्ति है। धर्म अभय से जुड़ा है। वही धर्म की यात्रा का आदि व अंतिम बिंदु है । धर्म का क्षेत्र आत्मानुशासन का मुख्य क्षेत्र है । धर्म परिवर्तन लाता है। आंतरिक परिवर्तन से जीवन परमार्थी बनता है। धर्म उत्कृष्ट मंगलमय है । धर्म मानवीय सद्गुणों का जीवन में विकास करता है ।
धर्म संवेदनशील बनाता है । उचित-अनुचित की परख धर्म ही करता है । सरलता से युक्त आत्मा की शुद्धि होती है और ऐसी आत्मा में ही धर्म स्थिर होता है । धर्म शाश्वत है. यह दुर्भाग्य का विषय है कि धर्म आज श्रद्धा की बजाय, आडम्बरपूर्ण हो गया है । धर्म तो आत्मा की निर्मल परिणति है । धर्म सार्वभौम सत्य है । धर्म अंधकार से प्रकाश की यात्रा है। मोक्ष परम पुरुषार्थ है । धर्म उस तक पहुंचने का मार्ग है | सभी धर्मों की आत्मा या अंतरंग रूप धर्म तत्त्व है । जो धर्म अन्य धर्मो को बाधा पहुंचाता है । वह धर्म नहीं, कुधर्म है । अंततः पंडित नेहरु का यह कथन दृष्टव्य है - आदमी धर्म के लिए झगड़ेगा, उसके लिए लिखेगा, उसके लिए मरेगा पर उसके लिए जियेगा नहीं ।
आज आवश्यकता इस बात की है कि धर्म को जीवनव्यवहार में जिया जाए। जो धर्म जीवन के व्यवहार में आता है, उसीका महत्त्व है । अन्त में पुनः यही कहना चाहूंगा कि आध्यात्मिक पक्ष के प्रबल, प्रखर एवं उन्नत-समुन्नत बनाने के लिए धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझा जाए और उसे हृदय में धारण किया जाए ।
74 - अध्यात्म के झरोखे से
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