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| रतीय चिन्तन परम्परा में योगविद्या
मा अनुभवसिद्ध प्रयोगविद्या है । हमारी प्राचीन आध्यात्मिक सम्पत्ति के रूप में योग का महत्त्व अक्षुण्ण है। योगविद्या प्राणविधा से घनिष्ठ अर्थों में संबद्ध है। तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय धारणाम् ।
(कठोपनिषद २-६-११) (आत्मा के स्थान पर) इन्द्रियों की स्थिर साधना करने की प्रक्रिया का नाम है ।
उपनिषदों में आने वाली योगचर्चा न केवल एक दर्शन के रूप में आई है अपितु क्रियात्मक साधन के रूप में भी उसकी वरेण्यता के दर्शन होते है। ___योगसाधना को उपलब्ध होने वाले व्यक्ति द्वारा प्राप्त फल की चर्चा श्वेतास्थतरोपानिषद में यों आती है - न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः। प्राप्तस्य योगाग्निभयं शरीरम् ॥ (२-१२)
योगाग्निमय शरीर को धारण करनेवाला व्यक्ति रोग को प्राप्त नहीं होता है, ना उसे वृद्धत्व आ घेरता है और ना ही मृत्यु उसे स्पर्श करती है।
अमृतोपनिषद में प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम
धारणा, तर्क, समाधियों, षडंगयोग वर्णित है - 52 - अध्यात्म के झरोखे से
७_चेतना की सर्वोच्च अकम्प अवस्था : ध्यान
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