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विकास है। आचारांग सूत्र में सर्व प्रथम यही आत्मबोधक सूत्र आता है कि पूर्व-पश्चिम
और उत्तर-दक्षिण से आया है वह मैं हूँ सोऽहम् ! मैं कषाय नहीं हूँ संज्ञा नहीं हूँ, शरीर नहीं हूँ, मैं दिगकाल या बाहरी परिवेश इनमें से कुछ भी नहीं हूँ। ये सब पर पदार्थ है । मैं केवल ज्ञाता द्रष्टा, अरूपी सत्ता एवं चैतन्य स्वरूप हूँ । यही स्वानुभूति का विषय है । भीतर का विकास अन्तःप्रज्ञा का विकास ही आध्यात्मिक विकास है इसी से जीवन में उल्लास उभरता है । ममत्व घटता है, समत्व बढ़ता है । विकृतियों का क्षरण होता है। निजस्व भाव में रमण चलता है । अध्यात्म चेतना जागृत होने पर व्यक्ति सोचता है - मैं अकेला हूँ, अकेला आया हूँ और अकेला ही एक दिन जाऊंगा। जब यह भावना प्रबल हो जाती है तब व्यक्ति किसी के प्रति निर्मम नहीं हो सकता। उसकी करुण भावना जाग्रत हो जाती है। वह किसी के प्रति विमोह से ग्रस्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि जीवन कितना है।
जब-जब भी व्यक्ति अध्यात्म विहीन बना है, जब-जब भी अध्यात्म की उपेक्षा करके भौतिकता में डूबा है, उसका जीवन समस्याओं का आगार बना है । अन्तर-बाह्य यंत्रणाओं से मुक्ति एवं जीवन में उजाले के प्रवेश के लिए अध्यात्म का महत्त्व असंदिग्ध है । स्वयं के द्वारा स्वयं की प्रतीति अध्यात्म और यह अध्यात्म मुक्ति का मार्ग है । अध्यात्म से ऊर्जा उत्पन्न होती है । अध्यात्म से आभामंडल तेजस्वी बनता है । अध्यात्म से सहनवृत्ति बढ़ती है। अध्यात्म से धृति बढ़ती है, प्रतिभा चमकती है ।
कुल मिलाकर अध्यात्म, हमारे जीवन का आधारस्तंभ है। जिस प्रकार आधारस्तंभ के टूटने पर सुन्दर और मजबूत महल भी गिर जाता है, उसी तरह अध्यात्म की उपेक्षा से जीवन का, सद्गुणों का ह्रास होता है। यह सजगता सदैव रहे कि अध्यात्म की उपेक्षा नहीं हो । अध्यात्म के अग्निपथ पर जो भी बढा हैं, उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त हुई है ।
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निजत्व की अनुभूति का प्रयास : अध्यात्म – 49
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