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निजत्व की अनुभूति
का प्रयास : अध्यात्म
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ध
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र्म का स्वरूप और अध्यात्म का रूप दो अलग-अलग स्थितियाँ होकर भी एक है जीवन को समझने के लिए इनकी, सही पहचान कर लेना जरूरी है । साधक के लिए ही नहीं, सामान्य गृहस्थ के लिए भी यह ज्ञान होना आवश्यक है । इसका कारण है कि यह शब्द हमारी सहायता नहीं करते । शब्द के माध्यम से जानने की प्रक्रिया शुरू तो हो सकती है, लेकिन उसका आरपार पाना मुश्किल ही होता है ।
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शब्द मारता है और अर्थ तारता है । यह सिद्धान्त ऋषि परंपरा का उद्गीथ है, जैन दर्शन की ज्ञान दिशा हो, वैदिक साहित्य की परंपरा हो, बुद्ध चिंतन का प्रसाद हो या ईसाई मनीषियों का प्रवचन, सूफी सन्तों की कहानियां हो या जैन संतो की बोध कथाएं ! कहीं से भी आरंभ क्यों न करें, सर्वत्र एक समन्वयकारी प्रतिभा एवं 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' का घोष ही सुनाई देता है ।
इसलिए विचार की गहराई तक पहुंचने की प्रक्रिया से जुड़े लोगों की बात निरंतर एकत्व की कथा - गाथा कहती हुई दिखाई देती है, शब्द तारता नहीं है, मारता हैं, तारता तो है अर्थ !
शायद दुनिया की साधु-परंपरा ने नित्य ही शब्द को नकारा है भगवान महावीर की वाणी गुंजी तो उन्होंने कहा सव्वे सरा नियट्टन्ति,
अध्यात्म के झरोखे से
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