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परिचय दे रही है. तथ्य यह है कि हमें निर्मल आचार और सुन्दर व्यवहार के लिए सर्व प्रथम पवित्र विचार, पवित्र भाव की ओर ध्यान देना चाहिए । मन के मंदिर में हमेशां पवित्र भावों का दीप प्रज्वलित रखिये । “परिणामें बन्धो, परिणामें मोक्खों' इस आगमसूत्र में स्पष्ट संकेत है - आत्मा का इस संसार में कर्मों से बन्धन अथवा कर्मो से मुक्ति उसके अपने परिणाम अर्थात् भावों के आधार पर है ।
भगवान महावीर से एक बार जब पूछा गया कि धर्म का निवास कहाँ है तो उन्होंने स्पष्ट कहा 'धमो सुद्धस्स चिट्ठइ' अर्थात् धर्म का, अध्यात्म का निवास स्थान सरल, सहज, निष्पाप पवित्र अन्तःकरण है । रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी का कथन है -
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निर्मल मन सो हि जन मोहि भावा ।
मोहि कपट छल नाहि सुहावा ॥
सचमुच, प्रभु उसी से स्नेह करते हैं जिसका अन्तःकरण निर्मल है । अन्तःकरण की निर्मलता से अभिप्राय भावो की निर्मलता है। जैनागमों में स्थान-स्थान पर इस आशय के उल्लेख देखने को मिलते हैं "भाव रहिओ न सिज्झइ" अर्थात् भाव से रहित जो है वह सिद्ध बुद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकता । यूं भाव तो प्रत्येक में होता ही है, जिसे मन मिला है, वह जीव, इस संसार में भावशून्य में ही नहीं सकता पर प्रश्न यह है कि भाव पवित्र है अथवा अपवित्र ? अन्तःकरण निर्मल भावों से जुड़कर जितना सात्त्विक, शुभ्र अनुभूतियों से आप्लावित होगा, आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन उतना ही ज्योतिर्मय बनेगा ।
अध्यात्म के झरोखे से
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