________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
साधु हो अथवा श्रावक उसकी साधना समता भाव के अभाव में अधूरी रहती है । सम्यग्दर्शन के लक्षणों में समता को 'सम' के रूप में प्रथम स्थान संप्राप्त है । समा के चार प्रकार है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । प्रत्येक स्तर पर समता की आवश्यकता रहती है। आध्यात्मिक विकास क्रम में समता चरम सीमा मानी गई है ।
मन एवं शरीर से उत्पन्न चित्तवृत्तियों को जड़ से नष्ट करना वृत्ति संक्षय है । ध्यान और समता, वृत्तिसंक्षय का कारण है । अन्य उसके सहयोगी है |
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
योग शतक में प्राचीन परंपरा के क्रम से आध्यात्मिक विकास क्रम विवेचन, अपुनर्बन्धक अवस्था से सम्यग् दृष्टि, देश विरति एवं सर्वविरति आदि से लेकर पूर्णत्व तक आया है । अपुनर्बन्धक अवस्था वह कहलाती है - " जो कर्मयोगी मन की परिणति को अशुभ अध्यव्यवसाय से हीन रखते हुए पारिवारिक कर्त्तव्य को सम्पन्न करता है । अध्यवसाय शुभ होने से आत्मरमणता आती है । यहाँ साधक मिथ्या स्वपरिणामी होते हुए भी विनय, दाक्षिण्य दया, वैराग्य आदि सद्गुणों के विकास में उद्यमशील रहता है ।
सम्यग् दृष्टि वह स्थिति है जिसमें भौतिक कार्यों से व्यामोहित होते हुए भी साधक मोक्षाभिमुख होता है । इसे भाव योगी भी कहते है | देशविरति साधक आचार विचारों से संचालित, विकसित होकर व्रत विधियों का सम्यक् प्रकार पालन करता हुआ आगे बढ़ता है । सर्व विरति की भूमिका से आगे सर्व ज्ञत्व तक साधक पहुंच जाता है । प्रशस्त भावों का उत्कर्ष होता है । आध्यात्मिक विकास में सविशेषबोध की प्राप्ति के लिए आचार्यों ने अलग-अलग प्रतिपादन किया है ।
154
1
स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूँ कि अध्यात्म से संबंध में न केवल जैन दर्शन अपितु संपूर्ण भारतीय दर्शन बल देता है। इसे यूं कहे तो अधिक उपयुक्त होगा कि भारत में दर्शनशास्त्र मूलतः स्वयं मे आध्यात्मिक है । चित्तशुद्धि को सभी ने आवश्यक माना है आध्यात्मिक विकास में चित्तशुद्धि की गुरुत्वपूर्ण भूमिका है । विकासक्रम की परिसमाप्ति के बीच कुछ नियत अवस्थाएं है । उन अवस्थाओं को वैदिक ऋषियों ने 'भूमिका' बौद्धों ने इसे 'अवस्था' आदि जैनों ने 'गुणस्थान' की संज्ञा दी है ।
新
अध्यात्म के झरोखे से
For Private And Personal Use Only