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• विपाक विचय कर्मफल के संबंध में चिंतन |
• संस्थान विचय लोक के संबंध में चिंतन ।
धर्मध्यान में चिंतन प्रवाह आत्ममुखी रहता है, इसलिए इन सब विषयों पर चिंतन करता हुआ साधक उनसे वैराग्य एवं निर्वेद की भावना ग्रहण करता है । धर्मध्यान वैराग्यप्रधान चिंतन है, जबकि शुक्लध्यान आत्मावलंबी अधिक स्थिर चिंतन है । धर्मध्यान के चार लक्ष्य, चार आलंबन और चार अनुप्रेक्षाएं है । विस्तृत जानकारी के लिए भगवती सूत्र, स्थानांग सूत्र एवं उववाई सूत्र आदि को देखना चाहिए ।
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शुक्लध्यान वह है, जिसकी साधना में मन की दशा, परम उज्ज्वल एवं विशुद्ध न जाती है । शुक्लध्यान उसी भव में मोक्षगामी आत्मा कर सकता है। इसके चार भेद है जिनमें प्रथम भेदों में एक द्रव्य, द्रव्य परिणाम आदि को आलंबन बनाकर ध्यान किया जाता है । तीसरी अवस्था में मन, वचन के व्यापार का निरोध हो जाता है, काया के स्थूल व्यापार भी रूक जाते हैं । चौथी अवस्था संपूर्ण निरोध अवस्था है । उसमें सब योगों की सूक्ष्मतम चंचलता का भी निरोध हो जाता है और परम स्थिर अवस्था में आत्मा लीन हो जाता है । शुक्लध्यान के चार लक्षण, चार आलंबन और चार भावनाएं हैं ।
आध्यात्मिक विकास प्रक्रिया में ध्यान की प्रक्रिया सर्वोत्तम साधन है । प्रशस्त ध्यान की ही उपयोगिता है । अप्रशस्त ध्यान अवरोधक है ।
इष्ट-अनिष्ट परिणामों के प्रति तटस्थता समझता है । क्योंकि इसके द्वारा भी प्राणियों के प्रति समानरूप से प्रेम होता है । समत्व मूलक जीवनचर्या का महत्त्व निर्विवाद है । समता भाव बढ़ता है, उतना ही सुख बढ़ता है । मन के मंदिर में समता का दीप सतत प्रज्वलित रहे, वह विषमता की हवाओं से बुझने नहीं पाए, इसके लिए जागरूकता जरूरी है। विषमता विनाश है, समता विकास है । विषमता मृत्यु है, समता जीवन है । मन की मुंडेर पर समता का दीप यदि प्रज्वलित हो जाए तो अंतर के आंगन में फैला हुआ अंधकार सहज समाप्त हो जाता है ।
आध्यात्मिक उन्नयन में सहायक तथ्य 153
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