________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अपनी क्षमता, अपनी शक्ति के अनुसार अणुव्रत अथवा महाव्रतों को स्वीकार कर मैत्री आदि भावनाओं से संपृक्त तत्त्वार्थ का चिंतन अध्यात्म है । अध्यात्म शब्द यौगिक एवं रूप अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । यौगिक रूप में आत्मा का उद्देश्य पंचाचार अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं वीर्य में होता है । रूढार्थ में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ भावनाओं में मन का अभ्यर्थित होना है। अध्यात्म में आत्मस्थिति का अशुभ से शुभ में आना है | यथार्थ बोध से गुणों का विकास, बहिरात्मा भाव है। सर्वथा शुद्ध भाव परमात्म-भाव है। भावना वह चिंतन है, जिसमें बहिरात्म भाव को त्याग कर आत्मा आगे बढ़ती है । अध्यात्म का एकाग्रतापूर्वक पुनरावर्तन ही भावना है । उल्लेखनीय है कि भावना दो प्रकार की हैं -
• बारह भावनाएं जो संसार की वास्तविकता बतलाती हैं । • चार भावनाएं जीवन पथ में मार्गदर्शक होती हैं ।
बारह भावनाएं क्रमशः अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोकस्वभाव, बोधि दुर्लभ एवं धर्म भावना के रूप में विश्रुत है। इसी तरह मैत्री प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ भावना आत्मविकास, आध्यात्मिक उन्नयन में साधक एवं पथ-प्रदर्शक है।
चित्त की सूक्ष्म चिंतन अवस्था ध्यान है जागृति एवं प्रमाद का जनक ध्यान ही है | शुभ ध्यान जागृति का आधार है, जबकि अशुभ ध्यान प्रमाद का कारण है । ध्यान एक तरह से ऊर्जा का सतत प्रवाही स्रोत है । वह व्यावहारिक जीवन को स्वस्थ एवं संतुलित बनाता है वही सामाजिक जीवन को प्रगतिशील तथा आध्यात्मिक जीवन को शुद्ध बुद्ध एवं वीतरागतुल्य बनाता है । आत्मा का आत्मा में लीन होना ध्यान है । आचार्य भद्रबाहु के शब्दों में चित्त की एकाग्रता ध्यान है। आगमों में ध्यान के चार भेद बताये हैं - (१) अट्टे झाणे, (२) रोदे झाणे, (३) धम्मे झाणे, (४) सुक्के झाणे । आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । आर्तध्यान का अर्थ है -
आध्यात्मिक उन्नयन में सहायक तथ्य - 151
For Private And Personal Use Only