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माने परन्तु एक सार्वकालिक सत्य यही है कि अपनी आत्मा से बड़ा, अपनी ही आत्मा से श्रेष्ठ कोई और नहीं है । जो आत्मा से जुड़ा है वही अनुपम है, वही अद्वितीय है, वह अप्रतिम है। आत्म प्रतीति ही अंततः जीवन उच्चता ग्रहण करता है । उपासकदशांग सूत्र में उल्लेख है - श्रमणोपासक आनंद अपने ही स्वरूप की ओर मुड़ चुका था । आनंद ने उस सूत्र को भी जान लिया था कि 'आत्मा से आत्मा को देखो' यह धर्माचरण का प्रधान सूत्र है । धर्म की स्पर्शता से मनुष्य का जीवन सफलता पा जाता है । आत्मा के द्वारा तप, त्याग, संयम की तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना से प्रबल हुई आत्म-शक्ति, कर्म-शक्ति को परास्त कर देती है ।
यह ठीक है कि किसी प्रकार की गति करने के लिए आत्म-शक्ति पर निर्भर है, पर यह भी तथ्य है कि शरीर की कोई भी गति आत्मा के अभाव में संभव ही नहीं है । मूल परख आत्मा की ही हो सकती है। आत्मा, शरीर से बहुत ही आगे की वस्तु है । ज्ञान, आत्मा का निजगुण है । आत्मा से ज्ञान का जुड़ाव है, तभी तो वह अजर अमर है और इसीलिए आत्मा है चिर नवीन, चिर युवा । आत्मा में हर अवस्था में संभवतः इसीलिए परमात्मा की दिव्यता स्थित रहती है । संयम आत्मा की परिणति है, यह शुद्धतम परिणति है ।
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विष्ट | आत्मा अनंत शक्तिमान है । आत्मा को विकृति देने में जो संज्ञा है, उसे मोहनीय कहते हैं । आत्मशक्ति का प्रतिरोध करनेवाला कर्म है, अंतराय | जो आत्मा की ज्ञानशक्ति का निरोध करता है ज्ञानावरणीय कर्म है और जो आत्मा की दर्शनशक्ति को आच्छादित करता है वह दर्शनावरणीय कर्म है । पदार्थों के मिलने की आशा हों, वे न मिल सके तो अंतराय कर्म होता है । आत्मा का गुण कर्म नहीं है । कर्म आत्मा के लिए आवरण तथा गुणों का विघातक है। आत्मा में अनंत सामर्थ्य है । उसका विघातक, विरोध कर्म तब बनता है, जब आत्मा के साथ शरीर हो । कहा भी है
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शुद्धतम आत्मा अनन्त शक्तिमंत है, आत्मा से जुड़े वही श्रीमन्त है । आत्मा की अवहेलना उचित नहीं, आत्मा में स्थित रहे वह जीवन्त है ॥ आत्मा सहनन तथा साधना से विशिष्टता पाती है । अंतराय कर्म के क्षय हो
अध्यात्म के झरोखे से
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