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प्रवाह के साथ निरंतर प्रवाहमान रहता है । जीवन की हर सांस के साथ गतिशील है । यद्यपि धर्म, अपने रूप में आध्यात्मिक विकास के लिए आह्वान है, लेकिन आत्मा का क्षेत्र स्व तक सीमित नहीं है । प्रत्येक सचेतन में आत्मा का वैसा ही परिस्पन्दन हो रहा है, जैसा कि स्व में । अतः धर्म के आशय को सिर्फ अपने आध्यात्मिक जीवन के विकास तक सीमित कर लें तो हम उसके विशाल और उदार दृष्टिकोण के साथ न्याय नहीं कर सकेगें । पक्षपात के पिंजरे में बन्द करके स्व-इच्छा स्वैच्छाचार को भी धर्म कहने की हिमाकत कर बैठेंगे ।
जैसा कि इसके नाम से ध्वनित होता है, धर्म एक ऐसी संघटक परस्पर बांधने वाली शक्ति है कि जिन आदर्शों को व्यक्ति के रूप में हम अपने लिए पसंद करते है, जिन मान्यताओं को अपनाते हैं, जिन मूल्यों का हम रक्षण पोषण करते हैं, उन्हें दूसरे भी स्वीकार करते हैं । अतः हम उन्हें सामूहिक अभिव्यक्ति प्रदान करें। उन सबकी व्याख्या कर दूसरों को भी वैसा आचरण करने की प्रेरणा दे । यह मानव मात्र का स्व पर कल्याण के लिये किया जाने वाला कर्त्तव्य है । इसीलिए धर्म के विशाल दृष्टिकोण से सर्व साधारण को परिचित कराने के लिए कोषकारों ने स्वभाव, कर्तव्य, सत्कर्म, सदाचार, नीति आदि अनेक अर्थ दिये हैं जो यथा अवसर प्रयुक्त होते हैं और किस अर्थ में कहा प्रयुक्त करना यह प्रयोक्ता की हेयोपादेय करनेवाली बुद्धि पर निर्भर है ।
जब हम दूसरों को अपने आदर्शो, जीवन मूल्यों को प्रवृत्ति में उतारने के लिए प्रेरणा देते हैं तो उनके प्रसार करने के लिए कोई न कोई प्रायोगिक व्यवस्था अंगीकार करनी ही होगी । यह व्यवस्था आचार द्वारा ही की जा सकती है । धर्म में चिंतन है, मन है तो उसके साथ आचार भी है । आचार के लिए अवश्य तीन शब्द पृथक-पृथक है, लेकिन तीनों एक ही वस्तु के तीन आयाम है । इस दृष्टि से धर्म का जो रूप सामने आयेगा वह होगा अशुभ से निवृत्ति के लिह शुभ में प्रवृत्ति । इस व्याख्या में धर्म का चिंतन पक्ष भी सबल हैं और मनन व आचरण पक्ष भी । अशुभ क्या है और शुभ किसे कहना यह चिंतन, मनन पक्ष की ओर इशारा करता है और उनसे अनुप्राणित प्रवृत्ति आचार की अभिव्यक्ति करती है ।
धर्म का विशाल दृष्टिकोण - 133
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