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कुछ विचारणीय अवकाश की प्रतिज्ञा में रहते हैं, कुछ विशेष तीज-त्यौहार, पर्व की राह देखते हैं। इस प्रकार की कृति, वृत्ति में तो जुए की सी गन्ध आती है कि एक दाव लगाया और बहुत जीत लेने के बाद समझ लिया कि अब क्या चिन्ता है।
सम्पूर्ण आत्माएं समान है, उनके सुख-दुःख अपने से विलग नहीं है और 'सव्व भूयप्प भूयस्स' अथवा 'सर्व भूत हिते रता' का आदर्श, आदर्श मात्र रह गया है । इससे आगे बढ़ने की बात सोची ही नहीं जाती है, लेकिन बुद्धिमान और अनुभूतिशील मनुष्यों का विश्वास है कि हमें मानवता सुरक्षित रखना है तो प्रमाद मुक्त एवं धर्म से युक्त होना ही होगा।
सुख का लक्ष्य होने पर भी उसकी प्राप्ति के हमारे सामने दो मार्ग है। एक विज्ञान का और दूसरे धर्म का । विज्ञान ने सुख प्राप्ति और दुःख से छुटकारे के लिए जो प्रणाली अपनायी एवं विज्ञानवेत्ता जिस ओर प्रयत्न कर रहे हैं, उनसे सुख मिलेगा या नहीं, यह काल्पनिक है। लेकिन इतना निश्चित है कि या तो हम पूर्ण विनाश की ओर छलांग लगा लेंगे या ऐसे बौद्धिक अंधकार अथवा बर्बरता के काल की ओर बढ़ने की तैयारी कर रहे होंगे, जिससे मनुष्य पुरुषार्थ द्वारा अर्जित कल्याणकारी उपलब्धियाँ स्वयं मनुष्य द्वारा तहस-नहस कर दी जाएगी, जिससे उनका अभाव दुःखी, निराश
और पीड़ित करने के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं कर सकेगा - ऐसी स्थिति अपने आप में भयानक है। कौन ऐसा होगा जो उपलब्धियों की भस्म पर जीवन के भव्य भवन का निर्माण करना चाहेगा । अतः विज्ञान की विपरीत दिशा और गतिशीलता के फलस्वरूप विश्व निर्णय एक ऐसे केन्द्र बिन्दु पर आ खड़ा हुआ है, जहाँ उसके समझने के सिर्फ दो ही विकल्प है - प्राणी मात्र के प्रति मानवीय भावों का विस्तार या प्रतिक्षण विनाश की मंत्रणा से पीड़ित रहने की परंपरा की स्वीकृति और अपने को अपने आप नष्ट कर देने की तत्परता । लेकिन अपने आपको नष्ट कर देना संभव नहीं है। किसी भी पदार्थ का स्वभाव, धर्म नष्ट नहीं होता है तो यह सचेतन प्राणधारियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाने वाला मानव अपने आपको कैसे नष्ट कर देने के लिए विनाश के मार्ग पर आरूढ़ और अग्रसर होगा ? अतएव मानव को कुछ ना कुछ निर्णय अवश्य
धर्म का विशाल दृष्टिकोण - 131
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