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परायणता के कारण उसकी साधना की ज्योति, निष्कंप दीपक की लौ की भांति पलपल ऊर्ध्वगामी होती है।
इसीलिए कहा जाता है कि जीवन में सबसे बड़ा दान अभयदान है । जब तक पूर्ण सुरक्षित होने की आश्वस्ति नहीं होती तब तक जीवन का सच्चा आनंद नहीं मिलता । भगवान महावीर निर्भयता के प्रतीक थे। जहां भय हो, वहां साधक अपनी साधना नहीं कर पाता । भय से बचने के लिए ही भगवान महावीर ने कहा - समय मात्र का भी प्रमाद मत करो । एक क्षण भी आलस्य में गंवा दिया तो वह क्षण पुनः नहीं आनेवाला है | कृत कर्म कभी निष्फल नहीं जाता । अन्यों को कष्ट पहुंचाकर व्यक्ति अपने लिए अशुभ कर्मों का संचय करता है । दुराग्रह से द्वेष फैलता है । द्वेष एक ऐसी वृत्ति है जिसे आतंक की संरचना होती है । आतंक की स्थिति में भय की प्रमुखता हो जाती है ।
भय से मुक्त होना है तो अभय की स्थिति को लाना होगा। अभय के लिए उन सभी उपादानों से बचना होगा जो भय को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष बल देते हैं । भयातुर होकर जीवन की सहजता संभव नहीं है । जहां सहजता नहीं वहां जीवन पूर्णतः अभिशाप बन जाता है। जीवन को सम्पूर्णता में अर्थात् सत्य रूप में स्वीकारना ही सुरक्षा की आश्वस्ति है । अनावश्यकता से ही भय और आतंक की भावना गहरी होती है।
अनावश्यक तनाव और भय का प्रमुख कारण अध्यात्म की उपेक्षा एवं प्रमाद से आंतरिक लगाव है। अध्यात्म, अभय का, शांति का द्वार है। अध्यात्म से जुड़ाव और प्रमाद से जितना मुडाव होगा उतना ही सुखों का विस्तार होगा ।
अध्यात्म : अभय का द्वार - 109
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