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निष्ठा से उसमें पर्याप्त आत्म-बल की स्थापना हुई । प्रतिदिन वह एक ही चिंतन करता कि वह दिन-प्रतिदिन स्वस्थ हो रहा है। परिणाम यह हुआ कि वह पूर्ण स्वस्थता पा गया। वह पूर्ववत अपने कार्य में उत्साहपूर्वक लग गया। इस तरह आपने हमने देखा कि एक ही पीड़ा से पीड़ित दो व्यक्तियों पर उनकी वृत्ति के अनुसार अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव पड़े। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि भय की उत्पत्ति और अभिवृद्धि में व्यक्ति की, उसकी अपनी आंतरिकता काम करती है। मनुष्य की अपने आपके प्रति आस्था ही उसे सभी प्रकार के प्रमाद और उनसे संदर्भित भय से मुक्त रखती है | अप्रमाद एक तरह से अध्यात्म परायण है । इससे भीतर में एक विशिष्ट शक्ति का संचार होता है । इस आंतरिक शक्ति से रहते हुए वह स्वयं अपनी मृत्यु का भी स्वागत सहर्ष करता है । हमारे यहाँ एक दोहा प्रसिद्ध है -
जिस मरने से जग डरे, मुझ मन है आनंद ।
जद मरस्या, जद भेंटस्या, पूरण परमानंद ॥ ___ इतनी बड़ी निर्भयता एवं अविचलता अध्यात्मनिष्ठा के बिना असंभव है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में भगवान महावीर का कथन है -
ण भाईयव्वं ! भीयं खु भया अईन्ति लहुयं । अर्थात् मत डरो ! डरे हुए के आस-पास भय शीघ्र मंडारने लगते हैं । धार्मिक आध्यात्मिक जीवन जीने वाला हमेशा निर्भय होता है, क्योंकि उसके जीवन में कोई कौटिल्य, दुराव छिपाव विकृति आदि नहीं होती । भयग्रस्त व्यक्ति जीवन पथ पर गतिशील नहीं हो पाता, उसका मन विविध आशंकाओं से कंपित होता रहता है।
साधु अथवा श्रावक दोनों ही भय से परे होते हैं, क्योंकि दोनों ही अध्यात्म जगत के साधक है। अध्यात्म से अभय की अभिवृद्धि होती है । अभय जिसके पास है वह निर्भीक सिंह की भांति अपने गंतव्य पर बचता है, न उसे देवता ही उसे विचलित कर सकते हैं और न ही रक्त पीनेवाले हिंस्र जन्तु । यह याद रखना चाहिए कि अध्यात्म की मनोभूमिका पर ही अभय के, साधना के सद्गुणों के पुष्प खिलते हैं । अध्यात्म
108 - अध्यात्म के झरोखे से
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