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(२०९)
नी टीका श्रीशीलांगाचार्ये करी छे तेमां अप्रमत्त साधुने निश्वयसम्यक्त्व कथ्युं छे. जे निश्चयसम्यक्त्व छे तेने भावचारित्र कथ्युं छे अने ते सातमा गुणस्थानकवर्ति साधुओने होय छे. ज्ञानी ध्यानी समाधिवंत साधुने निश्वयसम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय छे.
विशुद्धचारित्रीयोने कारकसम्यक्त्व कथ्युं छे पण ते बाह्य चारित्र क्रियारूप छे अने निश्वयसम्यक्त्व तो आत्मानी शुद्ध ज्ञान दर्शन चारित्र परिणति रूप छे माटे कारकसम्यक्त्व अने निश्वयसम्यक्त्वमां ए प्रमाणे भेद जाणवो. निश्चयसम्यक्त्वने आश्रयी सिद्धान्तोमां प्रशमादितुं लक्षणपणं कथ्युं छे. अप्रमत्त साधुओने जेतुं अत्यंत ज्ञानादि शुद्धात्मपरिणाम वडे निश्चय सम्य
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