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(२०२) कं भावसम्यकत्वम्-परीक्षाजन्यमतिज्ञानतृतीयांशस्वरूपस्यैव तस्यशास्त्रे व्यवस्थापितत्वात्। तदाहुःसिद्धसेनदिवाकरपादाः एवं जिणपन्नते, सदहमाणस्त भावओ भावे । पुरिसस्साभिणिबोहे-दसणसहो हव वच्चो॥
नयनिक्षेपप्रमाणोवडे सर्वज्ञतत्त्वोनो अपायरुप जे बोध थाय छे. जीवाजीवा दिसकलतत्व परिशोधनरूप जे ज्ञान तेने भावसम्यक्त्व कथे छे. परीक्षाजन्य मतिज्ञाननो त्रीजो अपायरुप जे भेद तेने भावसम्यक्त्व रूपे व्यवस्थापवामां आव्यो छे.
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