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सिरिसूरि मंतसरणं, किच्चा गुरुणेमिणरि पयसरणं, सिरि संभव पहु हुथुत्तं विरभेमि महापहा ॥१॥ वरगे विज्जय सग्गे - अणुहूयामरावसि सुहययरं, ववगयचवणयचिन्हं वंदे सिरि संभवा हीसं फग्गुणसिय, वरसेणा कुक्खि सुत्तिमोत्तियहं, भुवणविहिय वरसंति, वंदे सिरि संभवाहीस जियरि कुलंबरचंदं, मज्जसिरे सुक्कचोद्रशीदियहे, जायं सावत्थीओ, वंदे सिरि संभवा हीस चउसयधणुभियदेहं, मग्गसिरे सुक्क पुण्णिमा दिवसे, दस सय सुहपरिवारं, छट्ठत वग्ग हिय चारितं ॥५॥ छउमत्थत्तं चोद्रस, वरिसाई जस्सतं सुहविहार, चाणमोणकलियं वदे सिरि संभवा
भवतइघाइच उक्कं कत्तिय सिय पंचभीइ छट्ठेणं, नासित्ता जो पत्तो, पंचमनाणं सराभो तं चारि सुया भासा, पण्णत्ता धम्मकोरवा चउहा, इय तडगोवञेस', वंदे सिरिसंभवा हीस चत्तारि अंतकिरिया, पुरिसकसाया तच चत्तारि
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